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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर साधनाकाल का नवम वर्ष Anal 179 एकोनविंशति अध्याय कर्म निर्जरा के प्रसंग से प्रभु गोशालक सहित वज्रभूमि, शुद्धभूमि और लाट देश में विहरण करने लगे। उस अनार्य देश के क्रूरकर्मा अनार्य लोग बड़े ही स्वच्छन्दी थे। जैसे परमाधामी देव नारकों को भीषण वेदना उपजाते हैं वैसे ही वे लोग भगवान को विविध यातनाएं देने लगे। कोई डंडे से जोरदार मारता है तो कोई मुट्टी से प्रहार करता है, कोई लाठी से मारता है, कोई पशु को देखकर वीभत्स अट्टहास करता है, कोई निंदा करता है, कोई शिकारी कुत्तों से प्रभु का शरीर कटवाता है। प्रभु उनको कर्मक्षय का साधन मानकर उन प्राणियों पर अत्यधिक अनुकम्पा भाव बरसाते थे। पीड़ा देने वालों पर भी प्राण-वत्सलता का भाव कितना पावन चिन्तन, जिन्हीं से कर्मजयी महावीर अवस्मरणीय वन गये । अपने अंगूठे के स्पर्श से लक्ष योजन ऊँचा मेरु पर्वत कम्पायमान करने वाले, लोक को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाने की शक्ति-सामर्थ्य रखने वाले प्रभु महावीर अनार्य लोगों द्वारा दिये गये उपसर्गों को भी समभावपूर्वक सहन कर रहे हैं, शक्ति होने पर भी प्रतिकार नहीं करने की भावना से अशुभ कर्मवृन्दों का क्षय कर रहे हैं। शक्रेन्द्र ने प्रभु की सेवा के लिए सिद्धार्थ देव की नियुक्ति की थी लेकिन वह गोशालक को उत्तर देने को तैयार था । प्रति समय प्रभु के साथ नहीं रहता था क्योंकि भगवान उसकी सहायता की अपेक्षारहित थे। प्रभु चरणों में बडे-बडे इन्द्र आकर के प्रणाम करते हैं लेकिन कर्मक्षय करने के इस युद्ध मे वे स्वयं ही पुरुषार्थ करते हैं। वे इन्द्र तनिक भी सहायता नहीं कर सकते है। जिनके स्मरण मात्र से सारे उपद्रव नष्ट हो जाते है उन वीर प्रभु को सामान्य व्यक्ति भी भीषण उपसर्ग पहुंचा रहे है। कर्म गति का कैसा विचित्र खेल है कि परमेश्वर को भी ऐसी भीषण आपतियों का सामना करना पड रहा है। कहीं-कहीं तो भगवान को रहने एक छा स्थान नहीं मिला तो भीषण सर्दी-गी का परी एएन उन माता है। सहीने तक ऐसे पर बनी न्य उ नावि सन दिया। ऐसे विवाद
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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