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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर – 178 वीभत्स और म्लेच्छ ही तो हो। मैं तुम्हें कोई गलत थोड़े ही कह रहा हूं। गोशालक की यह बात सुनकर ग्वाले को बहुत गुस्सा आया और क्रोध से उसने गोशालक को बांध कर बांस के वन में फेंक दिया। गोशालक बन्धन में बंधकर तड़फने लगा। संयोगवश दूसरे मुसाफिर आये। उन्होंने गोशालक को बन्धन में आबद्ध तड़फते हुए देखा, तब उसे छुड़ाया । भगवान् वहां से विहार करके राजगृह नगर पधारे। राजगृह नगर दानदाताओं और दयालु प्रकृति के लोगों की नगरी थी। धन-सम्पन्न राजगृह नगर के लोग बड़े ही धर्मात्मा थे। वह मगध देश की राजधानी और राजा श्रेणिक की आवासस्थली थी। उस राजगृह में अष्टम चातुर्मास करने महाप्रभु महावीर पधारे और चौमासी तप का प्रत्याख्यान कर विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करके अष्टम चातुर्मास आत्मसमाधि में लीन बनकर सम्पन्न करने लगे। विशिष्ट उपसर्गरहित अष्टम चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ। चातुर्मास समाप्त होने पर नगर के बाहर चातुर्मासिक तप का पारणा किया । पारणा करने के पश्चात् प्रभु ने चिन्तन किया कि मेरे अभी बहुत कर्म अवशिष्ट हैं जिनकी निर्जरा आर्य देश में सम्भव नहीं। अनार्य देश में ही हो सकती है, अतः अनार्य देश जाना चाहिए। ऐसा विचार कर प्रभु ने अपने चरण अनार्य देश की ओर गतिमान किये। संदर्भः साधनाकाल का अष्टम वर्ष, अध्याय 18 1. (क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 293 (ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि; पृ. 283-84 त्रिषष्टिश्लाका पु. चा., पृ. 67 (क) ततो आगतो मिच्छामिदुक्कडं काउं खामेइ महिमं च करेइ। आवश्यक चूर्णि, मलयगिरी, पृ. 284 (ख) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 295 (क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 295 (ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरी; पृ. 285 (क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 296 (ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरिः पृ. 2 (ग) त्रिषष्टिश्लाका पु. चा.; वही; पृ. 70
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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