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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 175 साधना काल का अष्टम वर्ष - अष्टदश अध्याय प्रभु चातुर्मासिक तप का नगरी के बाहर पारणा करके कुण्डक ग्राम में पधारे। वहां वासुदेव के मन्दिर में, एक कोने में जैसे कोई रत्नमय प्रतिमा हो, उस भांति तपोतेज से जाज्वल्यमान होकर स्थित रहे। गोशालक वासुदेव की प्रतिमा की तरफ अशिष्टता करके खड़ा रहा। उसी समय पुजारी आया। उसने सोचा कि यह पिशाचग्रस्त अथवा उल्टी बुद्धि वाला दिखाई दे रहा है। ऐसा चिन्तन करता हुआ वह भीतर गया। जाते ही उसने प्रभु को देखा। देखकर चिन्तन किया कि ये जैन साधु हैं। यह जो व्यक्ति है वह इन्हीं के साथ है। यदि मैं इसको मारता हूं तो लोग मुझे अपराधी बतायेंगे और कहेंगे कि इसने निर्दोष साधु को पीटा है। इसलिए मैं इसको कुछ नहीं कहता हुआ सारी बात गांव वालों को कह देता हूं जिससे वे चाहे जैसा करेंगे। मेरी वदनामी नहीं होगी। वह पुजारी यह विचार कर गांव वालों के पास जाता है और सब हकीकत कह डालता है। गांव के युवा, बालक आकर गोशालक को बहुत पीटते हैं। बाद में वृद्ध व्यक्ति कहते हैं, अरे यह नासमझ है। इसे पीटने से क्या लाभ? ऐसा कहकर उसे छुड़ा देते हैं। वहां से कायोत्सर्ग पालकर प्रभु विहार करके मर्दन नामक ग्राम में पधारे। वहां बलदेव का मन्दिर था जहां प्रभु प्रतिमा धारण करके स्थित हो गये। गोशालक मन्दिर में जाता है और बलदेव की प्रतिमा के सन्मुख जघन्य कृत्य करता है। जिससे गांव वाले लोग उसे पीटते हैं। तय अनुभवी उसे पिशाचादि कहकर छुड़ा देते हैं। वहां से विहार कर प्रभु बहुशाल ग्राम पधारे। उस गांव में सालयन नामक उद्यान था। वहां शालार्या नामक एक व्यन्तरी थी। प्रभु को देखते ही उसका पूर्वभव का प्रभु के साथ निन्द्ध वैर जागृत हो गया। तब उसने भगवान को उपसर्ग देना प्रारम्भ किया। एक के बाद एक निरन्तर उपसर्ग देते हुए जद आखिरकार व्यन्तरी धक गयी तो लापान हो ज-अर्चा कर स्वस्थान लौट गयी। हां से बिहार कर मु लोहार्गल नामक ग्राम पर रहे। पिता कनक राला सलकाता उसका दृर सके.
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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