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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर -- 172 का क्षयोपशम विशेष होने से अवधिज्ञान विस्तृत बन गया। कहा भी है, तिर्यंचों को मात्र अन्तगत अवधिज्ञान, मनुष्यों को अन्तगत एवं मध्यस्थ अवधिज्ञान तथा देव, नारक एवं तीर्थंकरों को मध्यस्थ अवधिज्ञान होता रात्रिभर रोष से व्याप्त चित्तवाली कटपूतना राक्षसी उपसर्ग दे-देकर विश्रांत हो गयी लेकिन परम सहिष्णु प्रभु उपसर्ग सहकर थके नहीं। उपसर्ग प्राप्ति के पहले भी वही मुस्कान और उपसर्ग समाप्ति के बाद भी वही मुस्कान । धैर्य की अप्रतिम प्रतिमा धारण किये प्रभु महावीर अपने आत्मचिंतन में तल्लीन थे। उनकी यह समता, सहिष्णुता, उत्तम तितिक्षा देखकर कटपूतना का हृदय द्रवीभूत हो गया। सोचा कि अहो! कहां रोष से संभृत मेरा मन और कहां घोर सहिष्णु प्रभु वीर! इतना जबरदस्त उपसर्ग दिया लेकिन वे धैर्यशाली, समता की साक्षात् मूर्ति बिलकुल विचलित नहीं हुए। धिक्कार है मुझे! मैंने इनको कितना कष्ट पहुंचाया है। अब मुझे क्षमायाचना कर लेनी चाहिए। इस प्रकार अत्यधिक पश्चात्ताप करती हुई प्रभु-चरणों में बारम्बार क्षमायाचना करती हुई वह कटपूतना स्वस्थान लौट गयी। प्रभु वहां से विहार कर भद्रिकापुर आये और विविध अभिग्रहपूर्वक चौमासी तप का प्रत्याख्यान कर छठा चातुर्मास वहीं करने की प्रतिज्ञा की। गोशालक भी घूमता-घामता प्रभु से बिछुड़ने के छह माह पश्चात् वहीं आकर प्रभु से मिला और पुनः प्रभु की सेवा करने लगा। वर्षावास में अन्य कोई भीषण उपसर्ग नहीं आया । आत्मसमाधि में लीन रहते हुए छठा चातुर्मास व्यतीत हुआ । चातुर्मास व्यतीत होने पर विहार करके प्रभु नगर के बाहर पधारे। वहीं चातुर्मासिक तप का पारणा सम्पन्न हुआ" | संदर्भ: साधनाकाल का षष्टम वर्ष, अध्याय 16 (क) त्रिषष्टि श्लाका पु. चा.; वही; पृ. 63 (क) ताहे-गोसालो भणति-तुब्मे हम्ममाणं ण वारेह, अविय तुभेहि समं बहुवसग्गं, अन्नं च अहं चेव पढमं हम्मामि, तो वरं एगल्लो विहरिस्सं । आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 282 (ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि; पृ. 282
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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