SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर – 168 देवताओं ने उनकी महिमा गायी। इधर गोशालक ने जब सिद्धार्थ देव से जाना कि आचार्यश्री की मृत्यु हो गयी है तो पूर्ववत् जाकर उनके शिष्यों का तिरस्कार किया। भगवान वहां से विहार करके कूपिका नामक ग्राम में आये। वहां प्रभु ध्यानस्थ बनकर संसाधना कर रहे थे तब वहां के आरक्षकों ने प्रभु से प्रश्न किये । भगवान ने कुछ उत्तर नहीं दिया और गोशालक भी मौन रहा। तब उन्होंने भ्रांतिवश प्रभु को गुप्तचर समझ लिया और उन्हें उपसर्ग देने लगे। ताड़ना-तर्जना करने लगे। सारे गांव में समाचार फैला कि शांत-प्रशान्त सौम्य रूप वाले एक देवार्य को आरक्षक गुप्तचर समझकर मार रहे हैं। उस समाचार को गांव में रहने वाली अगल्भा और विजया नाम की दो परिव्राजिकाओं ने सुना। वे परिव्राजिकाएं पहले भगवान पार्श्वनाथ की शिष्याएं थीं। चारित्र मोहनीय के उदय से चारित्र छोड़कर जीवन निर्वाह के लिए परिव्राजिकाएं बन गयीं। उन्होंने इस वृत्तान्त को जानकर सोचा कि ये आरक्षक कहीं भगवान महावीर को तो नहीं मार रहे हैं! यह सोचकर जहां आरक्षक थे वहां आईं। वहां भगवान को देखकर उनकी वन्दना की और आरक्षकों से कहा- अरे मूर्यो! तुम यह नहीं जानते कि ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र श्रमण महावीर हैं। ये चरम तीर्थंकर हैं। तुम इनको जल्दी छोड़ दो। यदि शक्रेन्द्र को पता लग गया तो वह तुम्हें मार डालेगा। तब मृत्युभय से आरक्षकों ने प्रभु को बन्धनमुक्त किया और कृत अपराध की पुनः क्षमायाचना करने लगे। वहां से विहार कर भगवान् विशालापुरी पधारे। आगे बढते ही गोशालक ने भगवान से कहा कि अब मैं आपके साथ नहीं चलूंगा क्योंकि आपके साथ रहने पर जब मुझे कोई मारता है तो आप मुझे नहीं बचाते । आपको तो पग-पग पर उपसर्ग आते हैं। आपके साथ रहने पर वे उपसर्ग मुझे भी अकारण झेलने पड़ते हैं। जैसे अग्नि शुष्क घास के साथ गीली घास को भी जला देती है वैसे ही आपके साथ रहने से मुझे बहुत उपसर्ग झेलने पड़ते हैं। साथ ही, आप तो प्रतिदन भोजन करते नहीं। जिस दिन चाहिए, उसी दिन भोजन करते हो, तब मुझे कई बार आपके साथ भूखा रहना पड़ता है। आप तो मारने वाले या तारने वाले,
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy