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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर – 109 लगता । प्रभु ऐसा करें यह संभव नहीं। उस कुलपित ने प्रभु से निवेदन किया- प्रभो! पधारिये मेरे आश्रम में। भगवान महावीर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर आश्रम में पधारे। एक रात्रि वहां विश्राम किया। पुनः लौटने लगे तब उस कुलपति ने निवेदन किया, भगवन्! यह आपका ही घर है, आप वर्षावास करने यहां पुनः पधारना। प्रभु मौन रहे और मोराक सन्निवेश से विहार कर ग्रामानुग्राम विचरण करने लगे। इस प्रथम विचरण में ही अनेक परीषह सहन करने पड़े। शीत ऋतु का प्रथम विहार और अनेक परीषह प्रनु के समक्ष उपस्थित हुए। भयंकर शीत, गात्र पर एक देवदूष्य वस्त्र, लेकिन प्रनु प्रतिज्ञा कर चुके थे कि इससे शरीर आच्ादित नहीं लगा। नयंलर शीत-लहरें रोंगटे खड़ी करने वाली थीं जिनले चलने पर गडे-टाइयों में भी ठण्ड का अनुभव होता है, ऐसी हर निकन इनकर प्रभु शीत परीषह सहन कर रहे थे। देहदंड कंजन्य तन पर किया गया गोशीर्ष चन्दनादि काले सिमीन नहक चतुर्दिशा में प्रसरित हो रही थी, उतने ई-कृष्ट नरादि भगवान के शरीर पर मंडराते और न हु क लगाते थे। प्रभु उन तीक्ष्ण डंकों को जन - जननरदि को हटाते नहीं थे। जहां एक इं जिनला जातं. मन में हलचल मच जाती है तन्त्र क कीट-पतंग मंडराते हुए उन्हें नुक्लन्ट बन रहते। चार माह से अधिक --- हनक कर्म-निर्जरा का स्तुत्य मालिक असंग बनकर कई = निनान डन इं. थे। त्राटक ध्यान ले --- --- - के लि रहते थे। वे एक-तिक करते हुए ध्यान लत कला थीं जिन्हें देखला कलक' चिल्लाते हुए एक नई जन्म
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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