SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर 108 उपसर्गों के निवारण हेतु मैं बारह वर्ष तक आपके साथ निरन्तर रहना चाहता हूं। भगवान मुस्कराते हुए मधुर गिरा से सम्बोधित करते कहते हैं- शक्रेन्द्र ! पूर्वसंचित कर्मों को समभावपूर्वक भोगने एवं निर्जरित करने में स्वयं का पुरुषार्थ कामयाब है। प्राप्त उपसर्ग को समभावपूर्वक सहन करके ही मैं कर्म - विमुक्ति की ओर प्रयाण कर पाऊँगा और स्व- पुरुषार्थ से कैवल्यज्योति को प्राप्त करूंगा । मैं क्या, प्रत्येक तीर्थंकर महापुरुष बिना किसी सहायता के स्वयं के पुरुषार्थ से ही कैवल्यज्योति का आविर्भाव किया करते हैं। अतः आपको यहां रहने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । - भगवान द्वारा ऐसा कहा जाने पर भी शक्रेन्द्र का मन नहीं माना | बार-बार यही चिन्तन चलता रहा कि प्रभु को बहुत कष्ट आने वाले हैं, अतः अकेला कैसे छोडूं ? तब चिन्तन करके शक्रेन्द्र ने भगवान महावीर की मौसी के लड़के को, जो बाल तपस्वी होकर सिद्धार्थ नाम व्यन्तर देव बना, उसे भगवान की सेवा में नियुक्त किया और शक्रेन्द्र स्वयं लौट गये' । प्रभु कायोत्सर्ग में निमग्न हुए । संयमीयचर्या का निर्दोष निर्वहन करते हुए भगवान महावीर दूसरे दिन वहां से विहार करके कोल्लाक सन्निवेश पधार गये । बेले का पारणा था। पारणे हेतु प्रभु महावीर भी कोल्लाक सन्निवेश में भिक्षार्थ पधारे और घूमते हुए बहुल नामक ब्राह्मण के यहां पर पधार गये। वहां प्रासुक खीर बनी हुई थी। उसने भगवान को प्रासुक खीर बहरा कर अपने घर पर खीर से पारणा करवाया । देवों ने पांच दिव्य बरसाये। साढ़े बारह क्रोड़ सोनैया की वर्षा हुई। देवों द्वारा अहो दानम् ! अहो दानम् ! की उद्घोषणा हुई । " तदनन्तर कोल्लाक सन्निवेश से विहार कर भगवान मोराक सन्निवेश पधारे। वहां 'दूदूज्जंतक' नामक आश्रम में कुलपति महाराज सिद्धार्थ का मित्र था । वह भगवान् महावीर को पहिचानता था। उसने जैसे ही भगवान को आते देखा, वह उनके सामने स्वागतार्थ पहुंचा । उसने भगवान् का स्वागत किया। आवश्यक चूर्णि में ऐसा उल्लेख मिलता है कि कुलपति के स्वागत करने पर भगवान ने भी पूर्वाभ्यास के कारण उससे मिलने हेतु वांहें पसारीं" लेकिन यह ठीक नहीं
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy