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________________ ७८ सकता है ? सर्वप्रथम तो हमे ऐसा महसूस होगा मानो स्पष्ट दिखने वाला यह प्रबल विरोधाभास ऐसा आघातजनक है कि वैठे हुए मनुष्य को खडा कर दे। साधारण बुद्धि के मनुष्य की बात को अभी एक मोर रख दे । जिन लोगो की बहुश्रुत विद्वानो मे गिनती होती हे ऐसे मनुष्य भी असभव मानकर उसे दुत्कार दे ऐसी यह असाधारण बात है । परन्तु वस्तुत ऐसा नहीं है। ___ यदि सिर्फ एक ही पहलू से निर्णय किया जाय तो यह वात हमे वेगार ही महसूस होगी। लेकिन यहाँ हमे यह नही भूलना चाहिए कि जैन दार्शनिको ने, अनेकातवाद की दृष्टि से, अनेक भिन्न-भिन्न दृष्टिविन्दुनो तथा विचारधाराया का एक साथ विचार करने के बाद ही, यह बात कही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की चारो ही अपेक्षाएँ सातो ही नयो द्वारा की गई तुलना और सप्त भगी के कोष्टक से मिलान करने के बाद कही जैन शास्त्रज्ञो ने, यह अजीव-सी लेकिन वास्तव मे 'पूर्ण सत्य' बात कही है। व्यवहार का एक छोटा-सा उदाहरण ही ले ले । दवाई, अमुक पीडित मनुष्य के लिये उपयोगी है लेकिन दूसरे पीडित मनुष्य के लिये निकम्मी है, यह स्वीकृत तथ्य है। इसलिए, यह एक ही दवाई उपयोगी भी है और निकम्मी भी' इस बात से क्या हम इन्कार कर सकते हैं ? अन्य मत मे मानने वाले जैनेतर दार्शनिको का जैन तत्त्वज्ञान के अनेकातवाद के विरुद्ध सबसे बडा विरोध तो यह है कि "जो वस्तु सत् है वही वस्तु भला असत् कैसे हो सकती
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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