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________________ कभी-कभी हम अपनी नजरो के सामने देखते है या अनुभव करते है कि जब दो मनुष्य चर्चा करते है, आपम में बहस करते है तब वे कान वद करके बैठे होते है । एक मनुष्य दलील कर रहा हो तव उसे सुनने के स्थान पर दूसरा मनुष्य अपने मन मे अपने व्यक्त किये हुए अभिप्राय के समर्थन के लिये नई युक्तियो की खोज मे ही व्यस्त रहता है । इस प्रकार की चर्चा के समय बहुत-सी अप्रस्तुत तथा बन्दर की सी उछलकूद वाली वातो का मानो एक ढेर-सा लग जाता है। सत्य की खोज करने का तथा उसे प्राप्त करने का यह मार्ग नही, इस बात को हम आसानी से समझ सकते है। प्रश्न यह उठता है कि हमे 'सत्य' की खोज कहाँ और किस तरह करनी चाहिये ? जैन तत्त्वज्ञानियो ने जिस ढग से इन प्रश्नो का उत्तर दिया है, वैसा किसी दूसरे ने भी दिया हो, ऐसी बात हमने आज दिन तक नही सुनी । 'अनेकातवाद' तथा 'स्याद्वाद' द्वारा इन प्रश्नो का उत्तर दिया गया है । जैन तत्त्वज्ञान के सिवा किसी और तत्त्वज्ञान ने 'अनेकातवाद' और स्याद्वाद की शिक्षा दी हो ऐसा आज दिन तक जानने को नहीं मिला। ___ इस तत्त्वज्ञान के मूल मे जो मुख्य बात छिपी है वह यह है कि किसी भी एक ही दृष्टि-विन्दु से किसी बात पर सोच विचार न करना चाहिये । जिस विषय के सवध मे हमे विचार या निर्णय करना हो उसके अन्य पहलू भी है या नही इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है। कई लोगो ने ढाल के दूसरी ओर देखने की बात कही है, किन्तु वह ढाल अपनी ही कल्पना के अनुसार होती है । इसके दो ही पहलू
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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