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________________ ४०२ यदि हम थोडे या बहुत से व्यक्तियों से मिल कर पूछे तो मालूम होगा कि अधिकाश लोग श्रद्धा को मानते ही है । परन्तु इनमें से सब के सब शायद ही 'श्रद्धा' शब्द का अर्थ जानते है । सामान्य अर्थ मे वे 'श्रद्धा' को 'विश्वास' या 'भरोसा' मानते है । परन्तु यदि श्रद्धा के वदले विश्वास के विषय मे उनसे पूछा जाय तो अधिकाश लोग तुरन्त ही यह कह उठेगे, "नही, भाई नही, इस दुनिया में किसी का भी विश्वास करने योग्य नही है ।" विधि की विचित्रता देखिये कि 'विश्वास रखने योग्य नही है' ऐसी व्यापक मान्यता के बावजूद समस्त विश्व का व्यवहार विश्वास पर ही चलता है । परन्तु श्रद्धा का अर्थ वडा गहन और गंभीर है । यह मानना और कहना कि 'इसमे मुझे श्रद्धा है', बडी साधारण, छोटी, सीधी सी बात है। इससे यह फलित नही होता कि ऐसा कहने वाला और मानने वाला व्यक्ति श्रद्धालु है। किसी भी मनुष्य को किसी वस्तु पर जो श्रद्धा होती है उसकी प्रतीति तो तभी हो सकती है जब कि इस विषय मे उसकी परीक्षा ली जाय और उस परीक्षा मे उत्तीर्ण होने को वह तत्पर हो । जिस वस्तु मे खुद को श्रद्धा हो उस वस्तु के लिये श्रावश्यकता पडने पर मर मिटने की अथवा सर्वस्व बलिदान करने की तमन्ना जिसमे हो उसी मनुष्य को 'श्रद्धावान्' कह सकते है | उसके सिवा, केवल शब्दो मे व्यक्त होने वाली श्रद्धा तो भेड़ो के समूह जैसी है, उसे जिस ओर मोडना चाहे उस ओर मुड जाती है । तात्पर्य यह कि मत्रसिद्धि के लिए आवश्यक शर्तों मे जिसे प्रथम स्थान मिला है वह श्रद्धा इस प्रकार की पूर्ण श्रद्धा
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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