SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०१ बुद्धि-रहित श्रद्धा वन्ध्या है !" इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि श्रद्धा रहित बुद्धि मनुष्य को तरह तरह से वन्दर की भाँति नचाती है, और बुद्धिरहित श्रद्धा वन्ध्या की तरह कुछ भी फल नही देती । श्रद्धा और बुद्धि के सुयोग्य मिलन की बात बहुत ध्यान देने योग्य है । जैन तत्त्वज्ञान को ससार मे सर्वाधिक बुद्धिगम्य (Most rational) तत्त्वज्ञान माना गया है । 'यह एक अद्भुत तत्त्वज्ञान है - इस प्रकार की पक्की और सच्ची समझ प्राप्त करने के लिए सर्व प्रथम श्रद्धा से ही प्रारंभ करना पडता है । फिर भी अपनी स्थिति का निश्चित ज्ञान रखने वाले जैन तत्त्ववेत्ताओ का कथन है कि - "श्रद्धा पूर्वक आइये, पर बुद्धि को भी साथ लेकर आइये ।" वे बुद्धि को छोडकर आने की बात नही करते । जव मनुष्य किसी भी वात को श्रद्धा से ही सच मानता है, तब वह श्रद्धा के परिवलो से उस बात पर पूर्णतया आसक्त हो गया होता है । परन्तु उसमे वही वात दूसरो को समझाने की शक्ति नही होती । यदि मनुष्य ने श्रद्धा के परिवल से किसी वात को बुद्धिपूर्वक समझा हो, तो वह स्वयं तो उस बात को भलीभाँति समझता ही है, दूसरो को भी वह बात समझा सकता है । इस संसार मे जो अनेक विचित्रताएँ देखी जाती है, उनमे 'श्रद्धा' भी एक अजीव वस्तु है । समग्र विश्व की कोई भी प्रवृत्ति जब श्रद्धा की धुरी के इर्द गिर्द घूमती हो तभी वह सफल होती है । जिस प्रवृत्ति के मूल मे श्रद्धा न हो, ( ऐसी कोई कदली नही फलती) उसमे सफलता नही मिलती ।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy