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________________ २८६ करती है । इस तरह वस्तु का यथार्थ म्वरूप जाने विना यदि हम एक हो स्वरूप को पकडकर चले तो विवेक करने की असमर्थता के कारण इच्छित ध्येय तक पहुँचने मे असफल होगे। बौद्ध मत और वेदान्त मन की जो एकान्त मान्यताएँ हैं, उनमे सत्य का एक प्रग ही है, पूर्ण सत्य नहीं । फिर स्वमान्य नग का दुराग्रह रख कर अन्य प्रश का इनकार करने में असत्यता या खडी होती है, जबकि सपूर्ण सत्य अनेकान्तवाद मे ही प्रकट हुअा है । यह वैज्ञानिक, स्वत प्रतिष्ठित, नुव्यवस्थित तथा बुद्धिगम्य है । यहां हम इतना स्पष्ट कर देते है कि ये नित्य-अनित्य अादि धर्म कोई स्वतन्त्र धर्मों का योगफल नहीं है, अपितु विशिष्ट अनेकान्त धर्म है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, गात और तटस्थ बुद्धि का विवेकपूर्वक उपयोग करने से ऐसे सशयो का अपने आप निवारण हो जाता है। प्रश्न -जैन तत्त्ववेत्तानो के कथनानुसार वस्तु के गुण धर्म अनन्त है । तो फिर उनकी विश्लेषणात्मक समझ के लिए जो 'भग' वताये गये है वे केवल सात ही क्यो हैं ? ' उत्तर --सप्त भगो और नय, इन दोनो विषयो का स्पष्ट मान प्राप्त कर लेने पर इम प्रश्न का अपने आप समाधान हो जाता है । सप्तभगी मे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा से वस्तु का स्वरूप समझाया गया है, जब कि सात नयो मे वस्तु के गुण धर्मो का पृथक्करण है । नय वस्तु के भिन्न भिन्न गुण धर्म बताता है जव कि सप्तभगी तो केवल प्रत्येक वस्तु के एक एक गुण धर्म का सापेक्ष विश्लेपण करती है। नय' के विषय मे पहले कहा जा चुका है कि जो सात नय
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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