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________________ ३६४ अयोग्य कार्य करते ही रहते है। हमारी इच्छा न होते हुए भी केवल परिस्थितिवश हमारे हाथो दुष्कर्म हो जाते है । समस्त ससार की यह स्थिति है। इसी तरह कुछ सत्कार्य हमारी इच्छा के विरुद्ध भी हो जाते है । हम किसी प्रकार की यथार्थ जानकारी के बिना ही अच्छे कार्य भी करते है । प्रभु के दर्शन करके मन्दिर से बाहर निकलते समय रास्ते के दोनो ओर बैठे हुए भिखारियो को हम कभी कभी पाई-पैसा या लड्डू, चना भी बांट देते है, तो कभी कभी रास्ते में मिलने वाले किसी भिखारी पर क्रोध भी करते है । जगह जगह ऐसा देखने को मिलता है। हमारे सभी कार्यों की पृष्ठ-भूमि मे कोई सुस्पष्ट विचार नहीं होता । हम रूढि, परपरा, स्वभाव, आदत एव परिस्थिति के अधीन हो कर अधिकाश बर्ताव करते है। हम इस बात का विचार करने भी नहीं सकते कि हमारे हाथो जो हुआ है सो भला है या बुरा, खरा है या खोटा । अपने किसी कार्य के कारण बाद मे चलकर कोई कठिनाई पैदा होने पर विचार करने के लिए हम भले रुकते हो पर इस तरह रुकने का कारण हमारे हाथो हुए दुष्कृत्य का पञ्चात्ताप कदाचित् ही होता है, अधिकतर तो हम इस विपय का ही विचार करते है कि उपस्थित परिस्थिति मे से कैसे मार्ग निकाला जाय ? उसमे से छुटकारा कैसे हो ? अजीब बात तो यह है कि इन विचारो के फलस्वरूप हम एक दुष्कृत्य के परिणाम से छूटने के लिए पुन दूसरे दुष्कृत्यो को अपनाने लगते है। हमे इस बात का खयाल नहीं होता कि अपने हाथ पैरो मे पड़ी हुई बेडियाँ तोड़ने के लिए हम जो मार्ग ग्रहण करते है उससे
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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