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________________ ३४८ करने का पुरुपार्थ प्रारम्भ किया हो, ऐसे साधको के मोह का पूर्णत क्षीण होना-खत्म हो जाना—'क्षीणमोह गुणस्थानक' कहलाता है । इस गुणस्थानक मे चित्तयोग की पराकाष्ठा स्वरूप शुक्ल ध्यान-समाधि को प्राप्त करके अन्त मे ज्ञानदर्शनावरण तथा समग्र अन्तरायचक्र का दलन करके साधक केवलज्ञान प्राप्त करता है । ग्यारहवाँ और बारहवाँ गुणस्थानक लगभग एक से है, फिर भी उनमे यह अन्तर है कि ग्यारहवे मे वीतरागता-समभाव का स्थायित्व नही है, जब कि इस गुणस्थानक मे आने के बाद वह पूर्णतया स्थायी है। अत यदि हम इस गुणस्थानक को 'वीतराग-सदन' नाम दे तो उचित ही होगा। (१३) सयोगकेवली गुरणस्थानक - बारहवे गुणस्थानक को पार कर तेरहवे गुणस्थानक मे प्रवेश करने पर केवलज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु यहाँ 'सयोग' अवस्था होती है, इसलिए इसे 'सयोगकेवली गुणस्थानक' कहते है। यहाँ 'सयोग' शब्द का जो प्रयोग हुआ है, उसका कारण यह है कि इस सयोगकेवली गुणस्थानक मे केवलज्ञानी आत्मा को अघाती कर्म भोगने के जब तक वाकी रहते है तब तक 'योग' अर्थात् शरीरादि के व्यापार वाकी रहते है । आना, जाना, वोलना आदि शारीरिक व्यापार केवली भगवत को चाकी रहते है इसलिए इस गुणस्थानक को 'सयोगकेवली' नाम दिया गया है। ___यहाँ केवलज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश में समस्त लोकालोक के तीनो कालो के सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष होते है । अत तेरहवे
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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