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________________ ३४७ कारण से यदि रास उड जाय तो उसका ज्वलन पुन शुरु हो जाता है। अग्नि को ग प्रकार शान्त करने के मार्ग को उपशम पाहते हैं। इस उपगम मे जिन प्रकार अग्नि के पुनर्जीवत होने की सभावना रही हुई है उगी तरह कर्मो के उपगम मे-जब कर्म होते है तो-उनके फिर ने भभक उठने की स भावना गुप्त रूप में होती ही है । ___ इराके विपरीत यदि पानी से नाग बुझा दी जाय तो उसका फिर से उद्दीपन नहीं होता। इस प्रकार जो परिणाम लाया गया, वह 'उपशम' से नहीं बल्कि 'क्षय' से लाया जा सका । उसी तरह जिन कर्मों का क्षय किया जाता है, वे पुन उदय मे नही आते। ___तात्पर्य यह है कि यदि साधक ऐसा अपूर्वकरण करके उत्तरोत्तर सबधित कर्मो का क्षय करता हुआ आगे बढा हो तब तो उसके लिए कोई खास चिता करने का कारण नहीं रहता । परन्तु यदि वह कर्मो का उपशम करता हुआ आगे बढा हो तो ढंकी हुई अग्नि के समान कर्मो की लीला के कारण वहाँ से वापस फिसल पड़ने को निर्धारित स्थिति इस गुणस्थानक मे रही हुई है। इस ग्यारहवे गुरणस्थानक में इस प्रकार का फिसलना निश्चित होने के कारण इसे हम 'फिसलन-सदन' कह सकते हैं । सामान्यतया साधक लोग, इस गुणस्थानक मे प्रवेश ही न हो--इस हेतु से, पहले से ही कर्म-क्षय करते हुए पाना और इस गुणस्थानक को फाँद जाना अधिक पसन्द करते है। (१२) क्षोणमोह गुरणस्थानक -~ जिन्होने कषाय स्वरूप चारित्र्य मोहनीय कर्म का क्षय
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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