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________________ ३४३ त्रिविध त्याग की ग्राजीवन भीष्म प्रतिज्ञा होती है । परन्तु इस गुणस्थानक पर पहुंचने के बाद ग्रात्मा को अत्प प्रमाददशा का विघ्न या जाता है । वह कभी कभी ग्रामी तथा विकथा, विस्मृति ग्रादि के वश हो जाता है, तव समभाव की सुदृढ ग्रात्मजाग्रति मे कुछ भाग पडता है । सर्वविरति धर्म के प्राराधक को उत्कृष्ट ग्रवस्था पाने पर भी अनुचित प्रातुरता या सावधानी के कारण सावक मे प्रमादवगता प्रकट होती है | यहा मन्दकपाय को 'प्रमाद' नही माना गया है, वल्कि जब जरा भी ग्रात्मलक्ष्य चूक जाय तब उस अवस्था को 'प्रमाद' माना गया है । साधुजीवन मे भी 'प्रमाद' यश बनना अनादि कुसस्कारो के कारण सहज सभाव्य है । अत इस ग्रवस्था को प्रमत्तगुणस्थानक कहते है । फिर भी साधु स्वजागति एव गुरुनियत्रण के कारण अपने श्राचारो के प्रति चेतना अनुभव करता है, अत वह इस प्रमत्त ग्रवस्था मे से मुक्त होने की पात्रता रखता है, और इस स्थिति में से ग्रागे बढता भी है । अप्रमत्त बनता है । परन्तु वह अवस्था बहुत नाजुक होने के कारण वहाँ से पुन यहाँ प्रमत्त अवस्था मे या गिरता है । प्रमत्त से भी आगे वढने की सभावना होती है, परन्तु वह किसी विरले को ही साध्य होती है । फिर भी प्रमत्त गुरणस्थानक पर ग्रात्मा दर्शन - ज्ञान - चारित्र मे मग्न रहने के कारण लगभग ग्रात्माराम वना होता है, इसलिए इस गुण-स्थानक को 'आरामसदन' कहा जाय तो उचित ही होगा । इस प्रारामसदन मे से ऊपर के सदन मे जाने का साधन है विशेष जाग्रतिवान् वन कर प्रमाद का
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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