SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२५ और काया के द्वारा बँधने वाले कर्मों का आत्मा के साथ सयोग होता है-इसे प्रास्रव कहते है । आत्मा के अध्यवसाय से कर्म के पुद्गलो का प्रवाह आत्मा मे प्रविष्ट होता है-यह क्रिया प्रास्रवण-रूप है इसलिये इसके प्रयोजक मन, वचन, काया के व्यापार को 'पासव' कहा जाता है। मन से भला या बुरा चितन होता है । इस भले या बुरे चिंतन को वाणी कल्याणप्रद अथवा दुष्ट भाषा मे व्यक्त करती है तथा काया अर्थात् शरीर के अन्य अवयवो के द्वारा जो भला या बुरा आचरण किया जाता है उससे कर्मपुद्गलो का प्रवाह आत्मा मे खिच कर आता है, इसलिये इसे आस्रव या पाश्रव कहते है । इसकी सक्षिप्त व्याख्या देनी हो तो हम प्रास्रव को आत्मा मे कर्मपुद्गलो के प्रविष्ट होने का द्वार भी कह सकते है। आत्मा के विकासक्रम के साथ प्रास्रव का सीधा सम्बन्ध है। जैन दार्शनिको ने आत्मा के विकासक्रम की श्रेणी को 'गुण-स्थानक' नाम दिया है। कर्म के पुद्गलो का आत्मा में प्रवेश करने का यह प्रास्त्रव-द्वार ज्यो-ज्यो छोटा होता जाता है त्यो त्यो प्रात्मा का विकासस्तर उत्तरोत्तर ऊंचा होता जाता है । गुणस्थानको की संख्या चौदह है । 'नवतत्त्व' का निरूपण पूर्ण हो जाने के पश्चात् तुरन्त ही हम गुणस्थानको के विपय मे विचार करेगे । फिलहाल इतना समझ ले कि आस्रव अर्थात् आत्मा में पुद्गलो के प्रविष्ट होने के लिए प्रवेशद्वार । कर्म-पुद्गलो को अन्दर आने का आमन्त्रण आत्मा स्वय अपने कर्मों तथा प्रवृत्तियो के द्वारा है देता।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy