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________________ ३१६ न माने तो भी श्राखिरकार ऐसा कोई भी प्रयत्न हमारे लिये 'दुख' मे ही परिणत होगा । यदि हम सुख ही चाहते हो तो इस तथ्य को स्वीकार किये बिना कोई चारा नही है । हमे यह बात हमारे एक परम कर्तव्य की याद दिलाती है । इस परम पुनीत कर्तव्य को जैन- शास्त्रकारो से चार वाक्यों मे प्रस्तुत किया है— १ 'खामेमि सव्वजीवे' २ 'सव्वे जीवा खमतु में' ३ 'मित्ती मे सव्वभूएस' ४ वेर मज्झन केराई । इन चार वाक्यो का अर्थ निम्नानुसार है १ मै सब जीवो से क्षमा माँगता हूँ, सव को क्षमा करता हूँ । २ सव जीव मुझे क्षमा करे । ३ जीवमात्र के साथ मुझे मैत्री भाव है । ४ मुझे किसी के साथ वैर भाव नही है । अपने विकास की इच्छा रखने वाले किसी भी आत्मा को इन चार वाक्यो से ही प्रारंभ करना होगा, इन चारो वाक्यों के साथ एकत्व - समरसता का अनुभव करना होगा । समरसता प्रकट करने के लिए आवश्यक एक पूर्व भूमिका होती है जिसका नाम है 'कृतज्ञता भाव' । 'कृतज्ञता भाव' अर्थात् जिन जिन लोगो ने हम पर उपकार किये हो उन सबके प्रति आभार की भावना । यह आभार प्रकट करने का साधन है, 'नमस्कार - भाव' |
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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