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________________ ३१५ अब हम 'मै' की ओर लौटते है। यह 'मै' सो हम ही है, यह वात समझ कर हम आगे बढे । 'हम क्या चाहते है ?' यदि इस प्रश्न का हम संक्षिप्त और सही उत्तर चाहते है तो हमे दो अक्षर का एक शब्द उत्तर मे सुनने को मिलेगा "सुख ।" "शाबाश, क्या ही सुन्दर वात कही है।" । "हमे सुख चाहिए। यह सुख हमे अपने लिए चाहिए । हम सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी अवश्य करेगे । हम जो चाहते हैं सो 'सुख' है, 'दुःख' नही। जिसमे जरा भी दुख हो उसे हम 'सुख' नहीं मानेगे। उपर्युक्त सापेक्ष अद्वैत अर्थात् 'आत्मसमदगिता' की वात यदि यहाँ पर झांकती हुई न मालूम हो तो समझना चाहिए कि हम खाई में गिरे है।। हम अपने सुख के लिए जो कुछ प्रयत्न करे उससे यदि अन्य किसी को कुछ भी जरा सा भी दुख होता हो तो वह हमारे लिए भी 'दुःख' ही है । उसमे हमारे लिए सुख हो ही नही सकता। हम आत्मा के स्वरूप को मेरेपन का भाव लेकर विकमित करते “समग्न विश्व 'मै' ही है" ऐसी भावना तक पहुंचा चुके थे। तो अब, यदि हम से ऐसा कुछ भी कार्य हो जाय जिससे समग्र विश्व मे विचरते हुए जड-चेतन्य-सयोग से रचित किसी भी शरीर, मन या जीव को कुछ भी दुख प्राप्त हो तो उसको हमे अपना निजका दु ख मानना ही रहा । वास्तव मे है भी ऐसा हो । यदि हम स्वार्थ या मोह के वश होकर ऐसा
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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