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________________ २६४ तया प्रचलित (customaly) है। अन्तराय कर्म-निवारण को पूजा करवाने के पीछे प्रात्मा का एक सकल्प रहता है। इस संकल्प के द्वारा मनोभाव को शुद्ध बनाने की विधि सहित क्रिया जेन गास्त्रकारो ने बताई है। मनोभावो का विशुद्रीकरण अपने पाप मे एक प्रकार का शुभ कर्म होने से वह अन्तराय कर्म की विपरीत-प्रमलता को छिन्न-भिन्न करने मे सहायक होता है। इसके उपरान्त, अद्भक्ति-वीतराग परमात्मा की भक्ति गीर तपस्या के द्वारा भी इस कर्म से छुटकारा हो सकता है। ये चारो कर्म 'घाती कर्म' कहलाते है। इन कर्मों मे आत्मा के स्वभाव-भूत मुख्य गुणो का नाश करने की 'घातक शक्ति' होने के कारण इन्हे 'घाती फर्म' कहते हैं। कर्म के पाँचवे मुख्य भेद को आयुज्य कर्म कहते है । चार गति और चौरासी-लाख-योनि मे, प्रत्येक गगेर परिवर्तन के समय भिन्न भिन्न गरीरो मे प्रात्मा को कितना काल व्यतीत करना है, सो इस 'आयुष्य कम' के द्वारा निश्चित होता है। कर्म का छठा मुख्य भेद 'नाम कर्म' कहलाता है। प्रात्मा को कौन कौन से शरीर में, कैसी प्राकृति मे कैसे रूप मे और कैसे रग मे जाना है, सो बाते इस कर्म के द्वारा निश्चित होती है । आत्मा को जो भिन्न-भिन्न 'वस्त्र परिधान-गरीर ग्रहण' करने पडते है सो इसके कारण । आत्मा को गरीर, रूप, रंग, इन्द्रियाँ, चाल, यश, अपयग, सौभाग्य, दुर्भाग्य, सूक्ष्मता, स्थूलता आदि जो प्राप्त होते है सो 'नाम कर्म के आधार पर प्राप्त होते है। कर्म का सातवाँ मुख्य भेद 'गोत्र कर्म' कहलाता है। उच्च,
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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