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________________ २६३ देता है, कभी आत्मा की जान-स्वरूप दगा को प्रकट करने की-जान प्राप्त करने की इच्छा मे न्यूनाधिक प्रमाण मे वाधक होता है। इस कर्म के-कर्म के प्रभाव के-अश और प्रमाणDegree and 1atio-कम ज्यादा होते हैं। अग और प्रमाण के अनुसार वह आत्मा के ज्ञान गुण का अवरोध करता है। कर्म का दूसरा मुख्य भेद 'दर्गनावरणीय कर्म' के नाम से अभिहित है । यह कर्म आत्मा की दर्गन-गक्ति का अवरोध करता है, आत्मा की जाग्नत अवस्था का भी अवरोध करता है । इसमे भी अश और प्रमाण होते है । ____ कर्म का तीसरा मुख्य भेद 'मोनीय कर्म' कहलाता है । मोह अात्मा का एक जवरदस्त दुश्मन है। वह अात्मा के शुद्ध स्वरूप को उलट पुलट देता है । दु ख का कारण हो तो भी वह आत्मा को मुख की भ्रान्ति मे डाल देता है। इसके दो भेद है-दर्शन मोहनीय और चारित्र्य मोहनीय ।। दर्गन मोहनीय कर्म आत्मा की तत्त्वरुचि को रोकता है, तत्त्व-अतत्त्व के सम्बन्ध मे भ्रम पैदा करता है। चारित्र्य मोहनीय कर्म वीतरागता को रोक कर राग, द्वेष, ईर्पा, वैर आदि उत्पन्न कराता है। यह कर्म तृपया एव कलुपितता उत्पन्न करता है। कर्म का चौथा भेद अन्तराय कहलाता है। इस कर्म के द्वारा शुभ कार्यों मे वाधा उपस्थित होती है। दान धर्म, वस्तु की प्राप्ति और भोगोपभोग मे यह कर्म बाधा डालता है । इस कर्म के कारण होने वालो वाधानो से छूटने के लिए 'अन्तराय कर्म-निवारण की पूजा करवाना जैनो मे साधारण
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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