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________________ २७० प्रत्यक्ष कहते है। परन्तु याध्यात्मिक क्षेत्र मे, उच्च भूमिका पर, परिस्थिति बदल जाती है । व्यवहार मे हमे केवल इन्द्रियो तथा मन का प्राश्रय लेकर ही चलना होता है। आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र मे इन्द्रियो को तथा मन को अलग रख कर, उन पर सपूर्ण अधिकार प्राप्त कर के, आत्मतत्त्व के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने की बात याती है। इसलिए जैन तत्त्ववेत्तानो ने एक अोर इन्द्रिया और मन तथा दूसरी ओर यात्मा, इन दो भिन्न भिन्न अपेक्षायो से प्रत्यक्ष प्रमाण के दो विभाग बनाये है, जिन्हे वे 'साव्यवहारिक प्रत्यक्ष' और 'पारमार्थिक प्रत्यक्ष' कहते हैं। इन्द्रियो म और मन से होने वाला ज्ञान प्राध्यात्मिक क्षेत्र में 'परोक्ष' माना गया है, परन्तु व्यावहारिक क्षेत्र मे उसे प्रत्यक्ष अर्थात् 'माव्यवहारिक प्रत्यक्ष' माना गया है, जब कि आध्यात्मिक क्षेत्र में जिसे 'प्रत्यक्ष ज्ञान' कहते है उसे 'पारमायिक प्रत्यक्ष' माना गया है । जो ज्ञान इन्द्रियो की तथा मन की महायता के विना प्रकट होता है, प्राप्त होता है, वही सच्चा प्रत्यक्ष ज्ञान है, क्योकि यह आत्मा का अपना महज गुण है और जब इन्द्रियाँ तथा मन इत्यादि माव्यम की महायता के बिना ही यह ज्ञान आत्मा मे साक्षात् ( प्रकट ) होता है नव यह जान ही सच्चा प्रत्यक्ष प्रमाण बनता है। प्रमाण-गान मे इसे 'पारमार्थिक प्रत्यक्ष' कहते है। इस अर्थ मे, मति और श्रुत ये दोनो 'परोक्षजान' है । यहाँ हमने 'अवधि, मन.पर्यव तथा केवलज्ञान' को प्रत्यक्ष ज्ञान माना है । परन्तु इसमे भी दो विभाग है । अवधिज्ञान तथा मन.पर्यवज्ञान को 'देश प्रत्यक्ष' अथवा 'अश प्रत्यक्ष'
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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