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________________ २३८ इस जहर के स्वाद को मालूम करने की और दुनिया को बतलाने की एक तीन उत्कण्ठा ग्राज भी वैज्ञानिक जगत में जीवित है । इसके लिए अपने प्राणो का बलिदान करने वालो के प्रात्मा में रही हुई विश्वकल्याण की भावना ऐसी महान् और उदात्त है कि सभी को उसका ददन करने की इच्छा हो जाय । इस पर विचार करते हुए मन मे एक ऐमा प्रश्न उठता है कि 'प्रात्मा के मूल स्वरूप-यात्मज्ञान-के स्वाद के विषय मे भी ऐसी ही तीन जिज्ञासा और उसके लिए सर्वस्व का बलिदान करने की भावना इस विश्व मे क्यो नहीं प्रकट होती ? इसके लिए प्रवल पुरुषार्थ करने की अभिलापा क्यो जाग्रत नही होती ? जिन्हे यह अभिलापा जगी और जिन्होने परम पुरुषार्थ किया वे तो पार हो गये और उनमे से जो तीर्थकर भगवान् ये वे जगत के सर्वश्रेष्ठ उपकारी वन गये। उपर्युक्त जहर का स्वाद जानने की बात तो केवल विज्ञान को तथा विज्ञान के द्वारा विश्व को एक गूढ रहस्य की जानकारी देने तक सीमित है, जब कि आत्मा के मूल स्वरूप को पहचानने मे तो स्वकल्याण की एक बहुत बडी और आवश्यक वात भी है । सासारिक सुखो के प्रति उद्वेग धारण करके, प्राणि-मात्र के प्रति-जीव मात्र के प्रति-मैत्री और करुणा रखते हुए निर्लेप उपकार भाव धारण करके प्रात्मोद्धार का प्रवल पुरुषार्थ प्रारभ करने मे तो अन्तत आत्माका-हमारा अपना कल्याण है। आत्मा की मुक्ति का मार्ग उपर्युक्त जहर के स्वाद के समान गूढ और रहस्यमय भी नहीं है । सर्वज्ञ भगवतो ने हमे यह मार्ग बता ही रखा है । उसका अनुसरण करने मे कोई
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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