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________________ २०५ की स्पष्ट सूचना होने के कारण यह शब्दप्रयोग अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर आधारित है, और सही है । वस्तु मात्र परिणाम - शील हे और उसके प्रत्येक परिणमन मे - भाप में पानी की तरहउसके मूल द्रव्य का ध्रुव प्रश तो रहता ही है । प्रत जब भाप के द्रव्य की अपेक्षा की बात होगी तव उसमे 'पानी' तो अवश्य आएगा । इसी तरह जब पानी के द्रव्य की वात होगी तो उसमे 'वायु से सम्बन्धित बात' भी अवश्य आएगी । 'उत्पत्ति' शब्द का जो अर्थ किया जाता है उसे देखते हुए उसमे से ऐसी बात निष्पन्न होती है कि 'उससे पहले कुछ था ही नहीं' । ग्रव, 'पहले कुछ था ही नही' यह बात तो गलत है । उस त्रिपदी मे 'लय' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उस पर विचार करे तो हमे प्रतीत होगा कि इन तीनो शब्दो के प्रयोग अनुचित हैं । एक ऐसी मान्यता है कि प्रलय के समय पृथ्वी का नाश हो जाता है -- लय हो जाता है । यदि यह लय अथवा नाश सचमुच होता हो और सम्पूर्ण हो तो फिर से 'उत्पत्ति' सभव ही नही है । फिर भी हम ऐसी अनेक प्रलयकालो की - लय और नाश की बाते सुनते या पढते है | शुद्ध तर्क की दृष्टि से यह बात गलत सावित होती है । यदि हम इन तीनो स्थितियो को सापेक्ष मान कर चले, उनमे अपेक्षा भाव का आरोपण करे तभी उससे हमे प्रकाश प्राप्त होगा । इस जगत मे ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमे किसी अन्य की अपेक्षा या दूसरे के साथ सम्बन्ध न हो । जिस प्रकार एक ही द्रव्य का अपनी भिन्न भिन्न अवस्था से सम्बन्ध होता है, उसी तरह एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से भी सम्बन्ध अवश्य
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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