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________________ [ १६१ ] योग्य है । इस वाक्य के द्वारा ऐसा उपदेश किया गया है कि जो प्रवृत्ति अनानी तथा अविवेकी को कर्म का बंध कराने वाली होती है वही प्रवृत्ति ज्ञानी और विवेकी सज्जनो को कर्म से मुक्ति देने वालो-कर्मनिर्जरा रूप बन जाती है। इसके विपरीत जो प्रवृत्ति जानी तथा विवेकी आत्मायो के लिये कर्मनाशक होती हैं वही प्रवृत्ति अज्ञानी और अविवेकी मनुष्यो के लिये कर्मवन्धन रूप होती है । उदाहरणार्थ -एक ज्ञानी और विवेकी मनुष्य किमो रोगी की शुश्रुपा करता है, तब अपने भीतर परोपकार की शुभ भावना सुरक्षित रहे और अहभाव उपस्थित न हो ऐसी नम्रता बनाये रखने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता है । इसके विपरीत अज्ञानी और अविवेकी मनुष्य के हाथो कोई छोटा-सा भी जनकल्याण का कार्य हो जाय तो वह अहकार से फूल कर सब जगह अपनी गेखी दिखाता है, अथवा ऐसे अहभाव का पोषण करता है कि खुद ने कोई वडा सत्कार्य किया है। यहाँ सेवा का कार्य तो दोनो ने किया, परन्तु समझ-भेद से वह एक के लिये कर्मनाश का कारण बना और दूसरे के लिए वह कर्म-बधन हो गया। यदि निश्चय दृष्टि और व्यवहार दृष्टि के वीच का सपर्क सतत सुरक्षित रहे तो ऊपर बताया गया है वैसा कर्मवधक परिणाम नहीं होता । 'निश्चय' को हमने 'माध्य' और व्यवहार को 'साधन' रूप में माना है। इससे इतना तो अवश्य फलित होता है कि जो 'साधन' हमे 'साध्य' की अोर न ले जाय वह साधन अर्थात् वैसा व्यवहार निकम्मा और निरर्थक है। यह साधन भी वही तक साध्य की ओर ले जाने वाला
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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