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________________ [ १८६ ] प्रगति करना चाहते हो तो हमे ऐसा निर्णय करना पडेगा कि आत्मा से चिपकी हुई अशुद्धि को दूर कर आत्मा के मूल स्वरूप को सिद्ध करने का एक मात्र ध्येय हमारी समस्त प्रवृत्तियो का केन्द्र होना चाहिए। जब हम ऐसा निश्चय कर लेगे तब वह शुद्ध निश्चयदृष्टि बनेगा । अब यदि हम एक बार ऐसा निश्चय कर ले तो फिर हमारे समग्र प्राचार का एक मात्र लक्ष्य आत्मा को लगी हुई सारी अशुद्धियो को दूर करना ही रहेगा। __ जैन तत्त्वज्ञानियो ने मोक्षप्राप्ति के साधन के रूप मे 'ज्ञान-क्रियाभ्या मोक्ष यह एक वाक्य दिया है। इस वाक्य मे निश्चय और व्यवहार दोनो का उल्लेख है। इसमे हमे अपने आत्माको मुक्त करना है' ऐसा 'ज्ञान' सो 'निश्चय' है, और इसके लिए जो कुछ कार्य आचरण आदि के रूप मे क्रिया करना है सो 'व्यवहार' है। हमने ऊपर 'वस्तु का तात्त्विक स्वरूप' अर्थात् 'निश्चय' ऐसा जो अर्थ किया है, सो भी इसी दृष्टि से किया गया है । जब हम अपने शरीर को चेतनावस्था मे देखते है, तब उसमे जीव पदार्थ का पुद्गल पदार्थ के साथ जो सयोग हुआ है वह हमे समझ में आता है। हमारी सब प्रवृत्तियो का कर्ता तथा भोक्ता आत्मा स्वय है, यह बात भी हम जानते है। इस आत्मा का अतिम ध्येय अपने पुद्गलमिश्रित अशुद्ध स्वरूप मे से मुक्त होना और इस प्रकार अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट करना माना गया है। यह 'शुद्ध स्वरूप' जीव द्रव्य का अपना मूल तत्त्व है। इस मूल तत्त्व को समझने वाली दृष्टि 'निश्चय नय' है, और इसकी वर्तमान अवस्था को स्पर्श करने वाली दृष्टि
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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