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________________ १७० के आगिक स्वरूप का परिचय नय के द्वारा मिलता है। पदार्थ के भिन्न भिन्न अगो का भिन्न भिन्न दृष्टियो मे अभिप्राय प्रस्तुत करके उसका यथार्थ परिचय हमे 'नय' देता है। अत 'नय' शब्द का अर्थ 'अभिप्राय' भी किया जा सकता है । जैसे प्रमाण शुद्ध ज्ञान है, वैमे नय भी एक शुद्ध ज्ञान है । इन मे अन्तर इतना ही है कि प्रमाण से हमे वस्तु के अखड स्वरूप का ज्ञान होता है, जब कि नय से हमे वस्तु के अगभूत भिन्न भिन्न स्वल्पो का ज्ञान होता है । हम पदार्यविज्ञान की किसी प्रयोगशाला (Laboratory) मे कोई वस्तु विश्लेपण के लिये दे तो उसका पृथक्करण (Analysis) करके उन प्रयोगशाला का वैज्ञानिक हमारे हाथ मे एक सूची रख देगा। इस मूची पर दृष्टि फिराने पर हमे मालूम होगा कि उसने जिस वस्तु का पृथक्करण किया है उसमे कौन कौन सी चीजे कितनी कितनी मात्रा में है। मनुप्य के गरीर मे सचरण करने वाले रक्त मे कौन कौन सी वस्तुएँ होती हैं, इसकी जानकारी हमे कोई भी पैथोलोजिस्ट दे सकेगा । रक्त की जाँच कराने के बाद कई रोगों का पूर्ण निदान हो सकता है, और पूर्ण निदान के बाद उसका सफल इलाज हो सकता है, यह तो हम सब जानते है । उसी तरह 'नय' के द्वारा वस्तु के भिन्न भिन्न अगो को जानने की पद्धति भी ऐसी एक पृथक्करण विधि (Analytical Process) है । जैन तत्त्वज्ञानियो ने वस्तु के भिन्न भिन्न स्वरूपो का वर्गीकरण (Analysis ) करने के लिये हमारे मामने सात प्रकार की प्रयोगगालाएँ पेश की है उन्होने उनको 'नय, सात नय'नाम दिया है । अब हम इन सात नयो की क्रमगः
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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