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________________ १४० जैन तत्त्ववेत्तानो को पद्धति अनोखी और निराली है । वे वस्तु के किसी एक अत मे एक स्वरूप मे-एकान्त मे नही मानते । उनकी दृष्टि 'अनेकान्त' है । इसलिए इस विषय मे उनका कथन है कि, 'किसी भी एक ही कारण मे सब कुछ होता है, ऐसा कहना 'एकात सूचक' है। एकात मिथ्यात्व है, और अनेकात सम्यक्त्व है।' कार्य कारण के विषय मे वे कहते है कि - "पाँच अंगुलियाँ. या दो हाथ इकट्ठे होते है तभी कार्य होता है। हाथ के विना कुछ पकडा नहीं जाता, तो पैरो के विना चला नहीं जाता। दो हाथो के विना ताली नही वजती। जिद मे आकर किसी भी एक ही वस्तु या कारण को महत्त्व देने से कोई अर्थ नहीं निकलता।" ___"हम सेनापति को युद्ध मे विजय प्राप्त करने का श्रेय तो देते है, परन्तु अकेले सेनापति से युद्ध नही जीता जाता। सेनापति का युद्ध कौशल, सेना की गक्ति, अनुशासन, हथियारो की विशिष्टता, साधन सामग्रो की विपुलता, पूर्ति की सुरक्षित व्यवस्था और आखिर में जनता का पीठवल, इन सव की आवश्यकता होती है । यह सब होते हुए भी युद्ध के उद्देश्य को धर्मपरायणता का भी इसमे महत्त्व होता है।" ___ सूत के धागे से कपडा वनता है । परन्तु उससे पहले कपास का वोना, उगना, डोडी में से रूई का निकलना, उसमे से सूत तैयार करना, और उसके बाद सूत की जात, (ततु का स्वभाव) जुलाहे का उद्यम, काल का क्रम, मिलमालिक का भाग्य, आदि सभी अगो का सहयोग होता है । अरे, इन सव बातो के बाद भी पहनने वाले का प्रारब्ध न हो तो बना
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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