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________________ १०४ प्राप्ति कराता है वह हमे सिखाता है कि विश्व का अवलोकन किस प्रकार करना चाहिए।" स्वर्गीय श्री ध्रुव महोदय की तरह अन्य भी अनेक विद्वानो ने, जिनमे पाश्चात्य विद्वानों का भी समावेग होता है, स्याद्वाद के विषय मे इसी प्रकार की राय प्रकट की है । जैनतत्त्ववेत्तायो ने 'स्वात् गब्द का जिन अर्थ में प्रयोग किया है, उसे जो लोग यथार्थ रूप मे समझ लेते हैं, उन्हें फिर कोई भ्रम नहीं रहता। इस गब्द का अर्थ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की किनी एक निश्चित स्थिति के साथ जोड कर किया गया है इसलिए 'स्यात्' ना अर्थ 'कदाचित्' 'सभवत.' या 'नकायुक्त' (सन्देह प्रधान) नहीं बल्कि निश्चित होता है। _ 'स्यात् गन्द द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से एक निश्चित स्थिति अथवा अवस्था सूचित करता है। सप्तभगी में 'स्यात् के माय एवं' गब्द का प्रयोग जो किया जाता है नो इसके निश्चित प्रकार को स्पष्ट सूचित करने के लिए ही । इससे स्पष्ट होता है कि 'स्यावाद' कोई 'संभववाद'या साद'नहीं' है, यह एक निश्चितवाद' है। ___यहाँ स्वभावत कोई पूछ सकता है कि यदि यह एक निश्चितवाद ही हो, किसी प्रकार मे (कथचिन्) निश्चित स्थिति का ही दर्जन कराता हो तो 'स्यात्' गब्द लगाने की आवश्यकता ही क्या है ? इने 'स्यादवाद' के बदले 'निश्चितवाद' ही क्यो नही कहा गया। यह प्रश्न सहेतुक है। 'स्यात्' गब्द के वदले 'निश्चित' शब्द क्यो प्रयुक्त नहीं किया ? परन्तु जैन दार्गनिको द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान की खूबी
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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