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________________ १०३ विषय मे सन्देह उत्पन्न करने का प्रयत्न करते है । कोई कोई, अपनी अल्पबुद्धि के कारण,या उसमे गहरे उतरने की असमर्थता' या अनिच्छा के कारण ऐसे गलत अर्थ करके बैठ जाते है । जैन तत्त्ववेत्तानो ने इस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ मे किया है, उसे समझने के लिए उसमे गहरे उतरने की इच्छा न रखने वाले भी इस शब्द से उलझन महसूस करते है। जो लोग समझना ही नही चाहते वे अपने द्वारा किये गये अर्थ से चिपके रहते है । फलत हानि उन्ही की होती है क्योकि अात्मविकास के एक अनुपम-या जिसे 'एकमात्र' साधन कहा जा सके-ऐसे प्रबल एव सुन्दर साधन से वे स्वत ही वचित रह जाते है । जो समझना चाहते है, उन्हे तो 'स्याद्वाद' ठीक तरह समझ मे आता ही है । बहुत से जैनेतर विद्वानो ने जव तटस्थ भाव से जैन तत्त्वज्ञान का अवलोकन किया है तब उन्होने इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। गुजरात के सुप्रसिद्ध चिन्न स्व० प्रोफेसर आनदगकर ध्रुव महोदय ने अपने एक वार के व्याख्यान मे स्यादवाद सिद्धान्त के विषय में अपनी राय प्रकट की थी। उन्होने कहा था कि - ___ "स्यावाद" हमारे सम्मुख एकीकरण का दृष्टिविदु प्रस्तुत करता है । शकराचार्य ने स्यावाद पर जो आक्षेप किया है, उसका मूल रहस्य से कोई सम्बन्ध नही है । यह निश्चित है कि विविध दृष्टिविदुनो से निरीक्षण किये विना वस्तु पूर्णतया समझ मे आ नही सकती। इसलिये स्याद्वाद उपयोगी तथा सार्थक है । महावीर के सिद्धात मे प्रतिपादित स्याद्वाद को कुछ लोग सगयवाद कहते हैं । मै ऐसा नही मानता'। स्यावाद सशयवाद नही है, बल्कि वह हमे एक दृष्टिबिन्दु की
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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