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________________ 71 विदेशों में जैन धर्म भारत के साथ खूब व्यापार करता था। बेबीलोन के शिल्प-स्थापत्य पर भी भारतीय शिल्प-स्थापत्य का प्रभाव है। दोनों देशों के लाखों जैन श्रावक, व्यापारी, सार्थवाह आदि निरन्तर गमनागमन करते थे तथा दोनों देशों में बसे हुए थे तथा उनका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विश्वभर में फैला हुआ था। अध्याय 28 पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त (उच्चनगर) और जैन धर्म यहां पर भी जैन धर्म का बड़ा प्रभाव था। यह सिन्धु नदी के तट पर स्थित था। उच्चनगर में चक्रवर्ती सम्राट भरत के द्वारा निर्माण कराया गया युगादिदेव (ऋषभदेव) का महातीर्थ58 है। यहा के विशाल महाविहार मे आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। उच्चनगर का जैनों से अति प्राचीन काल से सम्बन्ध चला आ रहा है तथा तक्षशिला के समान ही यह जैनो का केन्द्रस्थाल रहा है। तक्षशिला, पुण्ड्रवर्धन, उच्चनगर आदि प्राचीन काल में बड़े महत्वपूर्ण नगर रहे है। इन अति प्राचीन नगरों मे ऋषभदेव के काल से ही हजारो की संख्या में जैन परिवार आबाद थे।109 विविध तीर्थ कल्प (जिनप्रभ सूरि) में इसका उल्लेख हुआ है)। अध्याय 29 महामात्य वस्तुपाल का जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए योगदान धोलका के वीर धवल के महामंत्री वस्तुपाल (विक्रमी सं. 1275 से 1303) ने जैन धर्म के व्यापक प्रसार के लिए महान योगदान किया था। इस कार्य में इनके भाई सेनापति तेजपाल ने भी पूरा योगदान किया। इन लोगों ने भास्त और बाहर के विभिन्न पर्वत शिखरों पर सुन्दर जैन मन्दिरों का निर्माण कराया और उनका जीर्णोद्धार कराया। शत्रुजय, गिरनार, आबू,
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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