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________________ 47॥ विदेशों मे जैन धर्म के राजकुमार अरदराक (अदरक) ने सुना तो वे भारत आये और महावीर का अपदेशामृत पान कर उनके शिष्य बन गये। ईरान में संभवतः उन्होंने ही अहिंसा धर्म का प्रचार किया था। महात्मा. जरथुस्त के अनुयायियों ने भी पशुबलि प्रथा का अन्त कर दिया। शाह दारा महान् ने अशोक की तरह ही धर्मलेख उत्कीर्ण कराके अहिंसा धर्म का प्रचार किया था। ईरान में अहिंसा की एक परम्परा ही चल पड़ी। कलन्दर सम्प्रदाय के सफी कट्टर अहिंसावादी हो गये हैं। महावीर सिन्धु-सौवीर के राजा उदयन को उपदेश देने के लिए सिन्धु-सौवीर गये थे और वह उनका परम शिष्य बन गया था। महावीर की अहिंसा का संदेश ईरान से आगे फिलिस्तीन, मिश्र और यूनान तक पहुंचा था। फिलिस्तीन के एस्सेन ,म्मदद्ध लोग कट्टर अहिंसावादी थे। मिश्र में भी शकाहार को आश्रय दिया गया और यूनान में पाइथागोरस ने भारतीय अहिंसा और जैन धर्म के सन्देश को फैलाया। उसे सन् 81 ईस्वी में भृगुकच्छ के श्रमणाचार्य ने एथेन्स जाकर ज्ञानसंपन्न किया था। जैन श्रमण भारत के बाहर दूर-दूर के देशों तक गये और उस समय सारे विश्व में अहिंसा का साम्राज्य स्थापित हो गया था। चीन में ताओ ने अहिसा पर जोर दिया। फिलिस्तीन मे एस्सेन लोगों ने अहिंसा को जीवन में उतारा। यूनान मे पाइथागोरस ने जो अहिंसा की अजस्र धारा बहाई वह बराबर बहती रही। मिश्र मे भी प्राचीन काल से ही जैन साधुओं ने अहिंसा धर्म का प्रचार किया और वहा की जनता शाकाहारी हो गई थी। मिश्र में पैगम्बर मुहम्मद के समय अनेक जैन मन्दिर और देवालय विद्यमान थे। मिश्र और यूनान मे ऋषभदेव की प्राचीन मूर्तिया मिली हैं। भारतीय सभ्यता के निर्माण में आदिकाल से ही जैनो का प्रमुख हाथ रहा है। जैनों में बडे-बडे व्यापारी और राजनीतिवेत्ता होते आये है तथा प्राचीन काल में जो विदेशों से विश्वव्यापी व्यापार प्रचलित था, उरामें जैनों का प्रमुख हाथ था।24 मगधाधिपति श्रेणिक बिम्बसार महावीर के परम उपासक थे। उन्होंने और उनके पुत्र महामंत्री अभय कुमार ने विदेशों में व्यापक रूप से जैन धर्म का प्रचार किया तथा धर्म प्रचार का कार्य अपने राज्य के वैदेशिक विभाग द्वारा निष्पादित किया। राजपुत्र आर्द्रक कुमार महावीर स्वामी से दीक्षा लेकर आर्द्रक मुनि बने और गोशालक. बौद्धों, वेदान्तियों और तापसों
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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