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________________ 26 विदेशों में जैन धर्म संस्कृति में अद्भुत साम्य है तथा प्राचीन अमेरिकी संस्कृति पर इस क्याजलकोटल संस्कृति की व्यापक और स्पष्ट छाप दृष्टिगोचार होती है। मध्य अमेरिका में आज भी अनेक स्थलों पर क्वाजलकोटल के स्मारक और चैत्य प्राप्त होते हैं। पणि लोग आत्मा की वास्तविक सत्ता में विश्वास करते थे तथा उन्हें आत्मा के पुनर्जन्म और सिद्धि में विश्वास था। उनकी श्रमण विद्या का आधार अहिसा. सत्य, अचौर्य, सुशील और अपरिग्रह थे। आरम्भिक लौहयुग के इन पणि व्यापारियो ने अपने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अभियानो के साथ अपने आत्म धर्म (श्रमण धर्म) का भी विश्वव्यापी प्रसार किया। तत्कालीन मैक्सिको के शासक भी जैन श्रमण संस्कृति के अनुयायी थे। अमेरिका की तत्कालीन मय, इन्का, अजटेक आदि अन्य सभ्यताये ईसा काल के बाद की है और सभी पर श्रमण सस्कृति का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वहां के अजटेक लोग वास्तव में आस्तीक की संतान है और वे नागो, नहुषों, भर्गो आदि के साथ पोलीनेशिया के मार्ग से अमेरिका पहुचे थे। ये सभी नागवशी जैन श्रमण थे। अब इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिल चुके है कि लगभग 2000 ईसा पूर्व में विकसित हुई क्वाजलकोटल संस्कृति की परम्परा में विकसित हुई परवर्ती मय, इन्का, आस्तीक (अजटेक) आदि सभी सभ्यताये श्रमण सस्कृति की पररूप है। मय सभ्यता की सर्वाधिक पूज्या और इष्ट देवमाता "माया है जो भारतीय लक्ष्मी की भांति कमल धारण किये है और उसके प्रधान देवता आदि पुरुष (आदिनाथ) है। अजटेक तो आस्तीक की सतान ही है और सम्भवत जन्मेजय से सन्धि के पश्चात् श्रमण आस्तीको, नागो, नहुषों, और भर्गों को पोलीनेशिया के मार्ग से अमेरिका में ले गये थे। आज भी मैक्सिको के मूल निवासी नाग की पूजा करते हैं और वे श्रमण धर्मी नागवंशियो की सन्तान है। भारत की भांति उनकी पूर्ण विकसित सन्यास परम्परा है। आस्तीक (अजटेक) अपने पुरोहितो को "शमन" कहते थे जो श्रमण का ही रूपान्तर अमेरिका में एक समय जैन धर्म का व्यापक प्रचार था। वहां जैन मन्दिरो के खण्डहर प्रचुरता से पाये जाते हैं। मैक्सिको के प्रशान्त महासागर तट पर जैना (JAINA) नामक एक विशाल द्वीप है जिसकी प्राचीन संस्कृति श्रमण संस्कृति के अनुरूप है। अमेरिका का पुसतत्त्व और
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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