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________________ विदेशों में जैन धर्म 23 वे उच्च शिक्षा प्राप्त और मेधावी थे तथा विश्व भर के महासागरों के स्वामी थे। उन्होंने ही तत्कालीन सम्पूर्ण सभ्य जगत् में ऋषभदेव प्रवर्तित संस्कृति और सभ्यता का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। नाग, ऋक्ष, यक्ष, बानर आदि अनेक कुलों में विभाजित यह पणि या विद्याधर या असुर जाति हिन्द महासागर मे फैले हुए विभिन्न देशों- प्रदेशो एवं द्वीपों मे शनैः शनैः फैल गई। बाद में विधाधर ही द्रविड कहलाये जिनके मानवों से घनिष्ट मैत्री और विवाह सम्बन्ध थे। विधाधरों ने मानवों के ज्ञान से लाभ उठाया तो मानवों ने विधाघरो के विज्ञान से । तीर्थकर ऋषभदेव से इक्ष्वाकु वंश का प्रारम्भ हुआ। उस समय अहि-जाति का निवास क्षेत्र ईरान और पश्चिमी भारत था । अहि-जाति वस्तुत. इक्ष्वाकुवंश की एक उपजाति थी। पणि भी अहि या वृत्रों से सम्बन्धित थे। उन्हें भी वेदो मे दस्यु और अनार्य कहा गया है। वस्तुत पणि लोग बडे समृद्ध, कुशल और शक्तिशाली थे। उन्होंने विश्व भर में अपने राज्य स्थापित किए तथा राज महल और किले बनवाये । बल उनका प्रसिद्ध नेता था। उन्होंने विश्व भर में बडे-बडे नगर बसाये, सेनायें रखी तथा भारी आर्थिक शक्ति स्थापित की। उनके इन्द्र, अग्नि, सोम, बृहस्पति आदि से युद्ध हुए । उन्होने अपना अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार साम्राज्य स्थापित किया तथा अनेक देशों पर शासन किया। उनका सम्बन्ध सुमेर, मिश्र, बेबीलोनिया, सुषा, उर एलाम आदि के अतिरिक्त उत्तरी अफ्रीका, भूमध्य सागर, उत्तरी युरोप, उत्तरी एशिया और अमेरिका तक से था । पणि लोगों ने ही मध्य एशिया को सुमेर सभ्यता की स्थापना की। वे भारत के अहि या नाग वशी थे तथा उन्होंने ही 3000 ईसा पूर्व सुमेर, मिश्र, यूनान आदि में श्रमण संस्कृति का व्यापक विस्तार किया । उन्होंने ही ईसा पूर्व 3000 में उत्तरी अफ्रीका में श्रमण संस्कृति का प्रचार प्रसार किया और उन्हीं के द्वारा भूमध्य सारग क्षेत्र तथा फिलिस्तीन में श्रमण संस्कृति का व्यापक प्रचार हुआ। महाप्रलय के बाद एशिया के उरुक राजवंश (नागवंशी उरग राजवंश) का पचम शासक गिलगमेश (लगभग 3600 ईसा पूर्व) दीर्घकालिक यात्रा करके भारत में मोहनजोदड़ो (दिलमन-भारत) की जैन तीर्थ यात्रा के लिए गया था, जैसा कि उसके 3600 ईसा पूर्व के शिलालेख से प्रकट है।
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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