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________________ चैतन्यदास रचित विष्णुमभं पुराणके ६ठे प्रध्यायमें भी ऋषभ-भरत का संबाद है। प्रलेख पथका यह एक प्रधान ग्रन्थ है। इस प्रन्धमें भलेख पंषकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन किया गया है अतः भरत मादि १. पुत्र अपने पिता ऋषभदेव से भलेख धर्मकी दीक्षा लेते इसबातका इसमें उल्लेख है। उत्कल में प्रचारित यह भलेख धर्म जैनधर्मका ही एक दूसरा स्वरूप है । विष्णुगर्भ पुराण के अध्याय में मिलता है कि ऋषभदेव विष्णु के गर्भ में न जाकर वैकुठ को गए है। इसमें ऋषभका महत्व विशेष रूपसे प्रतिपादित किया गया है । पूर्वोक्त, भागवतसे उद्धत ऋषभके जैसे विष्णुगर्भ पुरावकी हितवाणी में भी जैनधर्म के तत्व स्पष्टता परिलक्षित होते है । "जियों को दृढ़ता से बांध कर रहो, से राजा दोषियों को बदी बनाकर रखता है। माया (कपट) और मिथ्या भाषी न बनना, जानते हुए भी अनजान के जैसा रहना, सत्य का व्रत धारण करते हुए सत्य हो बोलते रहो कुपथ की कल्पना मन में भी न लामो, गृह में रहते हुए भी अत्यत विषय जंजाल में न फंसना पुण्यकर्म का ही बराबर सम्पादन करो भोरप्रकर्ममें नपलो, लाभ से सुख अथवा हानि से दुख न मानो मोर पर्वमत में अपने को देखो, सर्वभूत में क्या भाव रखो और निरीह प्राणियों पर क्रोष-षम रखना। विष्णु पर भक्ति रखने वाले लोगों की बातों से प्रतित होकर सदा विष्नु भक्ति रस में रत रहना। कुसंग परित्याग कर सत् संगति मे रहो और
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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