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________________ यो प्राणी (सांसारिक) कमोंके प्राचारचों में निरत रहता है हो उन कर्म बंधनों में पढ़ कर ) वह घोर नरक का भागी बनता है जो सत्वगुण में प्रेरित है और ब्रह्मकर्म करता है जया अनत को नम आराधना करता है, में सच कहता हूँ यह (वेद) विहित निर्वाण मार्ग है । चगत में स्त्री सत्रमादि कर्म समझ का द्वार है इन द्वारों का परित्याग करके महत् जनों की सेवा करनी चाहिए । जो मेरे पदों पर प्रमाद रहित होकर अपने मन प्रर्पित करता है, खो क्रोध निर्वाजित है मोर सारा जगत जिसका सुहृब मित्र है वही महत जन है और प्रशांत साधु भी यही कहलाता है, जो जन मुझे नहीं भजता है घोर प्रमित्य देह को मिस्व समझ कर चाया, गृह, धन और तमयादि के काम में पढ़ कर माना कर्म-क्लेश सहन करता है वह साधु नहीं है । ne तक प्रात्मा को (मनुष्य) पहचान नहीं पाता है तब तक (भ्रम में पड़ कर ) पराभव का भोग करता है, निरंतर मन को बहका कर अबतक (मनुष्य) नामा कर्म मे प्रवृत रहता है तब तक कर्मवश होकर वह नामा योनियोंमें जन्मलेता है । मे अव्यय वासुदेव हूं, मुझ में जिसकी प्रीति नहीं है वह देह और बंधु के परे नहीं है इसलिए वह ईश्वर को पहचानता नहीं । स्वप्नवत् (क्षणिक) इस बेह पर (मनुष्य) नाना ग्रहंकार -CETE
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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