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________________ मौर संख्या मत परिपूरक बौद्धधर्म चारसौ सालके बाद एशिया भर में व्यापक हो पाया। इस रास्ते से आगे बढ़ते जायें तो हमें मान लेना होगा कि म. महावीरजी के बहुत पहले जैनधर्मका प्रचार हो चुका था-मौर यही उस धर्म की प्रति प्राचीनता की प्रबलतम युक्ति है। जैनधर्मकी प्राचीनता के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि दक्षिण भारतमें श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने शिष्य चद्रगुप्त मौर्य को और अनेक जैन साधुओ को साथमे लेकर सबसे पहले ईश्वी पू० २६८ में पहुंचे थे। लेकिन भन्य एक प्रमाणके अनुसार प्रगट है कि जैनधर्म महावीरको जीवद्दशा में ही दक्षिण भारत में फैला था ? म. महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। उस समयमें जैनधर्म कलिंग, महाराज, प्रोध और सिंहल में व्याप्त हुमा पा। हाथी गुफा शिलालेख से मालूम पड़ता है कि महावीर कलिंग माये थे और उन्होने कुमारी पर्वतसे जैनधर्मका प्रचार किया था। अधिकतु ईश्वी०पू०पहली सदी में जैनधर्म कलिंगका राष्ट्रधर्म हो गया था। महाराष्ट्र में भी भ०महावीरसे पहले जैन धर्मका प्रचार हुमा, क्योकि म. पार्श्वनाथ के शिष्य करफंड कलिगके राजा थे।उन्होने तेरपुर (धाराशिव) गुंफाका परिदर्शन किया था और वहा जैन मदिरो का निर्माण कराया था।" उन मदिरो में जिनेन्द्रो की मूत्तिया स्थापित हुई थीं। इसके साथही यह भी कहा जाता है कि मांध्र में मौर्यों के राजत्व से पहले जैनधर्म प्रचारित हुमा था । उसी तरह, महा - 12 Cambridge Histry of India VoII Page 164. 65 और Epigraphia Carnation vol. I. पौर Early History India. Page 154. 13 I. B. O. R. 8. Vol XVI Parts I-II and Kara. kanduacharya's (Karanja Series) Introduction.
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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