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________________ और अंतमें सिद्ध-काम बनकर जिनदेव हुए। उनको प्रविधा दूर हुई मोर वे सर्वज्ञ बने । उन्होने दोघं काल अर्थात् ४२ वर्षों तक जैनधर्मका प्रचार किया। उत्कलका कुमारी-पवंत उनका प्रधान सघपीठ था मोर वहीसे जैनवर्मक प्रगणित कल्याणकारी तरग मगणित दिशामोमे फैले थे। इसके बहुत वर्षोंबाद,सम्राट अशोक कलिम विजय में घोर नरसंहार देखकर अनुपात से दग्ध हृदय हुये। और फिर बौद्धधर्म को ग्रहण करके उसके प्रचार में लगे थे । · देवाना प्रियदर्शी" के उप-नाम से वह प्रसिब हुए थे। फलत: बौद्धधर्मका प्रचार विभिन्न दिशामो में व्याप्त हुमा। किन्तु यह सबकुछ होने पर भी उताल मे जैन धर्म अपना सिर उठाये रखकर अपनी रक्षा करता रहा । कालचक्र के मावर्तन से उत्कल फिर स्वाधीन हमा और ईसा से पहले पहली शती में यहा खारवेल राजा हुए । भारतके विभिन्न स्थानो की दिग्विजय करके जैनधर्मको कल्याणकारी तरंगको उन्होंने अधिक व्यापक कर दिया। म. महावीर से २५० साल पहले भ. पाश्र्वनाथ ने जिस धर्म का प्रचार किया था उस धर्मको श्वेताम्बर बोग चातुर्याम कहते हैं, क्यो कि उस में चार व्रत थे। यथा-महिंसा, पचौम्य, मन्त प्रोर अपरिग्रह । इस चातर्याम धर्म का संस्कार करके म०महावीर ने उसको पचयाममें परिणत किया । उन ५वा व्रत है प्रारम सयममय ब्रह्मचर्य । इसके ऊपर उनहोंने विशेष जोर दिश पा) दिगम्बर जैन शास्त्रो में ऐसा बल्लेख को नहीं मिलता परतु उन में भी भ. पावं नाय और म. महावीर के माचार धर्म में कालभेद से अन्तर बताया है। भ. पाश्र्वनाथ के सघ में सामायिक चरित्र प्रचलित था और म. महावीर के सबमें छेदो-पस्थापनाचारित्र का प्राबल्य था । My Indian Antiquary Vol. x. pp.180-81 - - - -
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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