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________________ अर्थात् स्वच्छन्द वनजात शागसे अगर पेट भर जाता है तो उसी पेटके लिये इतना पाप करने की जरूरत क्या है ? इधर हृदय पूरणके माने होता है हृएक प्रकारके भोग या वासनाओं का पूरण। ये ही ब्रात्मस्य हैं और अपने में जो मारमा या पुरुष है उसकी उपासना करते हैं। इसलिये इनका व अध्यात्मधर्म कहलाया और यही अध्यात्मधमं जेवधर्म होता है। इस जनधर्मके बारेमें मशहूर जैनपण्डित जुगमन्दरलाल जैनी ने कहा है-" जैनधर्म ने मनुष्य को पूरी स्वाधीनता दी है । यह दूसरे किसी भी धर्म में नहीं है । हमारा कर्म और उसका फल- इन दोनोंके बीच और कुछ नही है। एकबार किए जाने पर वे हमारे नियामक बन जाते है । उनके फल अवश्य हो फलेंगे । मेरो प्राजादी जैसे कीमती है, मेरी जिम्मेदारी भी वैसे खूब कीमती है । मे अपनी इच्छा के प्रनसार प्रपना जीवन बिता सकता हूँ । लेकिन एक बार जो रास्ता चुन लिया है उससे वापस माने का कोई उपाय नहीं । में उस रास्ते को चुन लेनेका फल अन्यथा नहीं कर सकता । इस नीति के कारण जैनधर्म ईमाई इस्लाम और हिन्दूधर्म से भी अलग हो जाता है, खुद भगवान या उनके अवतार या उनके स्थलाभिषिक्त प्रथवा उनके प्रिय ( पुत्र या पयगम्वर) को मनष्य कर्मके फल पर हस्तक्षेप करनेकी ताकत नही है । श्रात्मा जो भी करती है उसके लिये प्रात्मा ही प्रत्यक्ष रूपमें और निश्चित रूप में जिम्मेवार है ।" Jainism more than any other creed gives absolute religious independence and freedom to man. Nothing can intervene between the aotions which we do and the fruits thereof. Once done, they become our masters and must fruitify. As my independence is great, so my reepon. sibility is coextensive with it.I can live as I like, -अं. sipyne
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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