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________________ हामोगुफा के खारवेल के लेखसे प्रमाणित होती है, उसोका यह बोर-संस्करण है । यह जगन्नाथ की परम्परा मूलतः पूर्णरूपमें बनधर्म की है । 'नाथ' शब्द पूर्णरूपसे जैनधर्मका निदर्शन है। संस्कृत में नायके माने होता है- जिससे मांग की जाती है। समता है, पहले इसका अर्थ उपास्य 'पारमारूपी पुरुष वा । कालक्रमसे बादको इसका मर्ष भक्तिधर्मके अनुसार होगया है। जैनधर्म प्रध्यात्म धर्म है - जैनधर्मको समझनेके पहले यह समझना जरूरी है कि धर्म क्या है ? संसार में दो प्रकार का धर्म होता है । पहला भक्तिधर्म और दूसरा मध्यात्मधर्म है। भक्तिधर्म एक प्रकार से मानव का स्वभाविक धर्म होता है। पहले लोगो को अधिक शक्तिशाली पूर्वजों से भक्ति होती पो, इसीसे धीरे धीरे साम्राज्य के भावका उदय हुमा, क्रमशः राजामो पोर सम्राटोंका प्रत्याचार बढने लगा और उससे 'एकेश्वरवाद' नामका प्रतिष्ठित कुसस्कार प्रकाशित हुमा । उसोके लिये इस संसारमें जो विवाद, वन्द्र और नरहत्या की गई है उसे समझाने जायें तो धर्मध्वजी मताधता तथा असहिष्णुता के साथ अपना धर्मभाव प्रगट करेंगे, उसको वर्णनाअनावश्यक है। यह मनुमेय है कि ऐसे ही एकदिन मसुरदेशके असुरदेवका उत्थान हुमा था । भोर वे ही एक तरफ इस अत्याचारके दूसरी तरफ इस एकेश्वरवादके मूर्त प्रतीक थे। लोग बो कुछ उपजाते थे, सब कुछ करके रूपमें इस असुरदेव को दे देते थे अगर न दिया तो अत्याचार सीमा पार कर जाता था। यहां तक कि नारियों पर शिशुमो को मनमाना कतल करके फेंक देते थे, मार उनके मुख्य पुरुषोंकी बिन्दा चमड़ी उतार लेते थे। जो उसके खिलाफ जबानमोलता था, जासूस से पता चलाकर उसके पास उड़कर जाते थे और उसे पकड़ कर उस
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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