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________________ शान्ति आती है। व्यक्ति की आक्रामक आकांक्षाएँ और अकूत सम्पत्ति को एकत्र करने की अभिलाषा: ढकेलती है। जब दमित इच्छाएँ अधिक बलवती हो जाती हैं तो चोरी के उपक्रम को जन्म देती हैं। 1 इच्छाओं के ऊर्ध्वमूल अश्वत्य की जड़ और शाखा सहित उत्पाद के के बिना मानव विकास पथ पर संचरणशील नहीं हो सकता । इच्छाओं पर नियन्त्रण की समस्त शिराओं को सन्तोष से सींचकर ही वसुधैव कुटुम्बकम् एवं भ्रातृत्व के फूल खिलते हैं। M परस्परोपग्रह जीवानाम्' में एक ऐसी समग्रता है। मानव को प्राणीमात्र से सहृदयता पूर्वक जोड़ती है। यह ऐसा महामन्त्र है जो हाहाकारी दुरन्त समस्याओं का अन्त करने में समर्थ है। यह ऐसी संजीवनी है यदि इसका प्रयोग किया जाय तो मत-मतान्तरों से उत्पन्न कलह स्वतः शान्त हो जाएगें। प्रत्येक प्राणी का एक-दूसरे पर उपकार है । परस्पर सहायक होना यह जीवों का उपकार है। मनुष्य वह एक सामाजिक प्राणी है उसके विकास में हजारों हजार परिस्थितियों को योगदान होता है। परस्पर उपकार ही वह धुरी है जो जीवन के रथ को गतिमान रखती है। परस्परता का धर्म शाश्वत है। परस्परता में केवल जीव ही नहीं आते सम्पूर्ण चर-अचर सृष्टि का समावेश होता है। यह वह निर्मल और पवित्र भाव केन्द्र है जिसमें प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्ति निर्भय और निरापद रह सकता है। एक-दूसरे का पूरक बनकर ही व्यक्ति और समाज शान्ति सम्पन्न बनता है। परस्पर उपकार की भावना से कार्य करने और उसकी महत्ता समझने से एक दिव्य सन्तोष और सुख मिलता है। शरीर में स्फूर्ति, वाणी में निश्चयात्मक भावना और स्पष्टता समा जाती है । इस सामाजिक चेतना से प्रेरित कार्यों में छोटे-बड़े का भेद नहीं होता अल्प-अधिक की तुलना भी नहीं होगी । परस्परोपग्रह ही समाज में सुख शान्ति की बगिया खिलाकर रहने योग्य बनाता है। वैयक्तिकता और सामाजिकता के तटों के मध्य इसी सिद्धान्त सेतु पर ही निरापद एवं सापेक्षतापूर्ण विचरण किया जा सकता है। सहअस्तित्व का यह भाव ही आदमी को आदमी से जोड़ता है। आधुनिक समाज में सबसे अधिक किसी शब्द को भुनाया जा रहा है जिसके आधार पर राजनैतिक कुर्सियों पर आपाधापी हो रही है वह है दलित (नीच) और उच्च शब्द । तत्त्वार्थसूत्रकार का एक सूत्र ही समस्त भ्रामक और अविवेकपूर्ण धारणा को तोड़ देता है। वे स्पष्ट कहते हैं कि उच्चता और मीचता जन्माधारित नहीं भावना और कर्म आधारित है। 1 परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने व नीचे गोत्रस्य ।' तद्विपर्ययो नोचैर्वृत्यनुत्सेकी चोतरस्य । परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन ये नीचगोत्र कर्म के आसव हैं। इनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा आदि तथा नम्रवृत्ति और निरभिमानिता ये उच्चगोत्र कर्म के आसव स्पष्ट और वैज्ञानिक विवेचन है ऊँच नीच का। मनुष्य ऊँच-नीच नहीं होते हैं उनकी प्रवृत्ति / वृत्ति नीच या ऊँच होती है। दूसरों के सद्गुणों का अपलाप करना दुर्गुणों का पिटारा बताना स्वयं पर गर्व करते रहना, दूसरों की अवज्ञा और अपवाद करना, किसी के गुणोत्कर्ष को नहीं समझना, सदैव दुरालोचना करना, दूसरों के श्रम पर जीना, दूसरे के यश का १. तवार्थसूत्र, 6/21. २. वही, 6/25. ३. वही, 6/26.
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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