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________________ 158/ता -निक मारवान्तिक सम्मेवानां घोषिता जीवन और मृत्यु दोनों के प्रति समभाव उत्पन्न करने वाला तथा जीवन से मृत्यु तक की यात्रा का सुखद बनाने वाला सूत्र है। आज समाज में आत्महत्या का ऐसा घिनौना दुष्कृत्य फैलता जा रहा है। तनिक अहं को ठेस लगी, तब आस्महत्या । लनिक सी विपरीतता, असफलता में आत्महत्या - इसी दूषित प्रवृत्ति से समाज कर्महीन, पौरुषहीन संघर्षविहीन बनता है। इसके विपरीत यह सूत्र वीरता से जीना सिखाता है। मृत्युंजयी बनता है तथा मृत्यु को सहर्ष स्वीकारने की प्रेरणा देता है। इस सूत्र से ज्ञात होता है कि मृत्यु का समय निकट जानकर दुर्ध्यान और असत्प्रवृत्तियों तथा दुर्भावनाओं से परे रहने वाला व्यक्ति अपना इहलोक भी सार्थक करता है । ऐसे वीर सजग नरपुंगव की मृत्यु वन्दनीय होती है तथा परलोक में भी वह सद्गति प्राप्त करता है। आचार्य श्री की सामाजिक अभिव्यक्ति का इससे सुन्दर साक्ष्य और क्या होगा कि आचार्य थी ने मोह से मोक्ष तक की यात्रा के प्रत्येक स्पीडब्रेकर, दुर्घटना स्थल और समस्त यातायात संकेतों को ही नहीं बताया अपितु यह भी ध्यान रखा कोई भी यात्रा बिना धन के सम्पन्न नहीं होती है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्न उन्होंने इस सांसारिक सामाजिक प्राणी के हाथ में सबसे पहले थमा दिए। इसके साथ-साथ उत्पादब्ययधीब्ययुक्तं सत् ईश्वरवाद की अवधारणा का नकार कर्मों की सत्ता की प्रतिष्ठापना करने वाला महामन्त्र और जैनागम का सारसूत्र है । सामाजिक न्याय की इसमे उपयुक्त व्याख्या और क्या होगी दीन-दरिद्र, निकृष्ट, उत्कृष्ट, धनी, बुद्धिमान-मूर्ख यह सब भाग्याधीन नहीं है । यह दोष प्राणी के अपने कर्म का है। वैयक्तिक स्वतन्त्रता एवं समानता के पक्षधर आचार्य उमास्वामी प्रत्येक प्राणी में उत्कृष्टता और निकृष्टता की क्षमता देखते हैं और उसकी इस अवस्था का भी कारक प्राणी स्वयं है। सद्कर्म करने की प्रेरणा इस सूत्र से प्राप्त होती है। सामाजिक समता और न्याय का द्योतक है यह सूत्र - शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य' इसी की विशद व्याख्या है काय, वचन और मन की क्रिया योग है और वही आसव है। शुभयोग से पुण्य का बन्ध होता है और अशुभयोग से पाप का बन्ध होता है। धन, रूप, बुद्धि, प्रतिष्ठा, शुभसंयोग आदि सभी अच्छे कार्य जो पुण्य में सहायक होते हैं, उन्हीं से सुख-समृद्धि प्राप्त होती है । इसके विपरीत कार्यों से दुःखदरिद्रता आदि दुःखदायी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। अत: अपनी सर्वप्रकार की अवस्था को अपने ही कर्मो का फल जानने वाला व्यक्ति अपने उत्कर्ष हेतु कभी भी निकृष्ट कार्यों का अवलम्बन नहीं लेता। मानिरोधस्तपः सत्यत: इस सूत्र को सौ-सौ बार प्रणाम करने को मन करता है। धर्म का चोला पहनकर अधर्म करने वालों के मंसूबों को नष्टकर समाज को सही एवं वैज्ञानिक परिभाषा का पाठ यह छोटा-सा अर्थगाम्भीर्य युक्त सूब देता है। समाज में सद्गुणों के सिंचन में यह सूत्र महत्त्वपूर्ण जलधार है। आज अन्तहीन इच्छाओं ने ही सद्भावना की हरी-भरी बगिा उजाड़ी है। इच्छा आकाश की भांति अनन्त है। लालसाओं पर नियन्त्रण करने से व्यष्टिगत और समष्टिगत १. तत्वार्थसूत्र, 7/22. २. वही, 5/30. ३. वही, 6/3. ४. वही, 6/1. ५. वही,6/2. - -
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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