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________________ इत्वारिकापरिमाहीता अौर इत्वरिका अपरिग्रहीता के दो शब्द सम्पूर्ण समाज के प्रतिबिम्बा है। बहार्मवत की अविचारों और माकनाम सहित व्याख्या में वर्तमान समाज की सारी बदहाली विद्यमान है। एडम जैसी बीमारी का बढ़ता मिकता मौर अनंगक्रीका का वृद्धिगत मामले भी मानसिकता को परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं। इसके लिए आचार्य उमास्वामी के ब्रह्मचर्य से सन्दर्भित सूत्रों को जीवन से सह सम्बन्धित करना होगा। ___ आज समाज में धन कमाओं की लूट-खसूट जैसे भी बने धन का अम्बार लगामओ की चतुर्दिक धूम मची है। जिसने सामाजिकता को दुर्बल बनाया है। अर्थ की महिमा असंदिग्ध है उसका संचय किया जाना चाहिए, किन्तु मर्पस्वमुक्ती बास की जगह पर मर्यस्य पुल्च: स्वामी के भाव को चरितार्थ करना ही श्रेयस्कर है। धनार्जन के साथ आचार्य श्री विसर्जन की कला भी सिखाते और समझाते हैं - बल्पारम्भपरिवहत्वं मानुषस्य एव बारम्बपरिणहरवं नारकास्थापुनः' मनुष्यता को इहलोक और परलोक में अल्पपरिग्रह ही सुरक्षित रख सकता है । अत्यधिक आरम्भ और परिग्रह नरक का ही आमन्त्रण और कॉटों की शय्या है। धर्म का अनुशासन तोड़कर धन संचित करना अनर्थों का ही जन्मदाता सिद्ध होता है। धन की अधिकता यदि हो जाए तो समाज में कल्याणकार्य और परोपकार करना ही अभीष्ट है। अनुग्रहार्य स्वस्यातिसर्गो दान के भाव से ही भौतिकवादी समाज में अध्यात्म का दीप जलता रह सकता है। अनग्रहपूर्वक दान ही धन सम्बन्धी लोलुपता एवं तज्जन्य दृषित मनोवृत्ति पर पहरूए का कार्य करता है। समाज में दान भी आज कलह और विवाद का विषय बन गया है। दान को सामाजिक प्रतिष्ठा का स्थान मिल जाने से अब अधिसख्य लोगों का भाव ऐसा देखा जाता है कि येन केन प्रकारेण धन सचय करते हैं और फिर उदारता का स्वाग करने के लिए उसमें से कुछ अश अपने अहम् सपोषणार्थ प्रतिष्ठावर्द्धक कार्यों में दे देते हैं। यह स्वकल्याण का उचित मार्ग नहीं है। सूत्रकार की दान की परिभाषा की जड़ें बहुत गहरी हैं। वह प्राणीमात्र का कल्याण किसी की कृपा पर नहीं स्वीकारता गुण है। समाजसेवा उत्तम भाव है पर जो दान त्याग को प्रतिष्ठित करें सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करे उसी से समाज का हित भी होता है और प्रभावोत्पादक और प्रेरणाप्रद भी। जैसे कहा है पानी बाहो नाव में, घर में बाशे दाम । दोनों हाथ उलीचिए यही सयानो काम ।। हम सामाजिक प्राणी है। हम अपने न्यायोचित धन का उपयोग समाज के उत्कर्ष के लिए करे । गरीब भाईयों की आर्थिक मदद करें । अनाथ विधवाओं के लिए समुचित व्यवस्थाएँ उपलब्ध कराएँ । विद्यालय, चिकित्सालय खुलवाएँ, धर्म के प्रचार-प्रसार व रक्षण हेतु शास्त्र प्रकाशन, तीर्थ संरक्षण, जीर्णोद्धार एव आवश्यक जिनमन्दिर निर्माण में धन का उपयोग करें। सूत्रकार ने विधिद्रव्यवातूपाचविशेषातहिशेष: में यही स्पष्ट किया है कि दान पात्र, द्रव्य, दाता, विधि इन सबकी श्रेष्ठता से श्रेष्ठ बन जाता है। अत: मात्र नाम, असूया और पात्र-अपात्र के निरीक्षण-परीक्षण बिना प्रदत्तदान सार्थक नहीं है। _ जिस प्रकार सागर अपने जल को मर्यादित रखता है उसी प्रकार धर्म के महासागर में अर्थ का जल अनुग्रह पूर्वक १. तत्त्वार्थसून, 1/17. २. वही,7/15 ३. वही, 7/38. ४.बाही, 7/39. -
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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