SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होनाधिकमानोन्मान, प्रतिरूपकव्यवहार ये अचौर्यव्रत की पाँच सावधानियाँ हैं। इनके परिप्रेक्ष्य में आकलन करे तो सर्वत्र समाज में चौर्यराज दिखलाई पड़ता है। चोरी का धन मानसिक शान्ति को छीनकर पीड़ा के पहाड़ खड़ा करता है। उमास्वामी जी इसीलिए इन्हें पाप कहते हैं जो मन ही मन पीड़ित करे वे पाप ही तो हैं । चोरी की भावना ईर्ष्या प्रपंच, कुटिल चिन्तना की माषा की छाया में ऋजुता सिर धुनती है, कलह पलती है मिलावट अट्टहास करती है व्यक्ति तौल में भी मारा जाता है और मोल में भी । दूसरों की लाश की छाती पर पैर रखकर आगे बढ़ने के मायावी दृश्यों की भरमार समाज में हर स्तर पर विद्यमान है। विकास के अर्थ को हड़पकर अव्यवस्था का जंगल उग रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक तस्करी से निपटने के लिए ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यक्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये पांच अतिचार तथा आमयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुदगलक्षेप नामक दिशविरति के पांच अतिचार परिहरणीय है। आजकल भी तस्करी के रूप में उपर्युक्त दोषों को देखा जा सकता है। स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों की व्याख्या के अभाव में समाज-शास्त्र अपूर्ण है। तत्त्वार्थसूत्र में इस विषय पर भी पर्याप्त सामग्री सुलभ है। आचार्य श्री की दृष्टि इन सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में संतुलित एवं विवेकयुक्त है। एक सूत्र दिया है - मेलमाहा स्त्री और पुरुष का जोड़ा मिथुन कहलाता है और रागपरिणाम से युक्त होकर इनके द्वारा की गई स्पर्शन आदि किया मैथुन है । परविवाहकरण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्वरिकाअपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा और कामतीव्राभिनिवेश ये पांच अतिचार हैं। इन पाँचों के प्रति पूर्ण सावधान रहने से ही ब्रह्मचर्य की साधना संभव है। आचार्य श्री ने नर और नारी के लिए पृथक मानदण्ड निर्धारित नहीं किए संभवतः उनको ज्ञात था कि भविष्य में ऐसा भी समय आएगा जब नारी भी नर के भोगवादी कदमों पर चलेगी और समाज वर्जनाहीन एवं भोगवादी हो जाएगी। स्त्रीरागकथाश्रवण, तन्मनोहरांगमिरीक्षण, पूर्णरतानुस्मरण, वृष्येष्टरस तथा स्वशरीरसंस्कार' इन सभी के त्याग से पोषित ब्रह्मचर्य की कितनी परिपालनना समाज में हो रही है, युवा पीढ़ी की गति और मति कितनी अश्लील हो चुकी। रात दिन चारप्रसाधन गृह के बढ़ते कदम और उनमें चलते देहव्यापार के अड्डे सब अपनी कहानी स्वय कह रहे हैं। अनजाने युवक-युवती के देहसम्बन्धों की छोडे, पिता-पुत्री, चाचा-भतीजी, मामा-भानजी, मां-बेटे कौनसा सम्बन्ध ऐसा नहीं समाचार पत्रों में जिसका कच्चा चिट्ठा बयान न हुआ है। जिस नारी के गर्भ का शोधन देवियाँ करती रहीं, तीर्थकर सिद्ध केवली जिसके गर्भ में शोभित हुए। जिसके अंक में खेलने वाले नरपुंगवों ने सिद्धालयों की ऊँचाई का स्पर्श किया आज वहाँ अवैध भ्रूण कूड़े के ढेरों पर पड़े सिसकते हैं। गर्भ में ही कत्लखाना और श्मशान बने हुए तब समाज में कैसे आएगें राम सीता । आचार्य द्वारा कथित तन्मनोहरांगनिरीक्षण की अवेहलना ही तो सौन्दर्य प्रतियोगिताओं का आमन्त्रण है, देह का ऐसा खुला प्रदर्शन युवतियों को पथभ्रष्ट न करेगा क्या? स्वशरीरसंस्कार के हजारों फार्मूले बताने वाली पत्र-पत्रिकाओं की भीड़ पर युक्क-युवती क्या विवाहित युगल भौरों की तरह चिपके रहते हैं। उन्मुक्त आचरण ने वैवाहिक संस्थाओं की चिन्दी-चिन्दी उड़ा दी । विवाहपूर्व प्रेम पुन: प्रेमविवाह यह निषिद्ध सम्पर्क का ही तो परिणाम है। आचार्य श्री के १.तस्वार्थसून,1/16.
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy