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________________ - 3. सम्म न होइ संसार कारणं शिवमा । होई हेतु जा वि विदा न करे | भावसंग्रह "सम्यन्दृष्टि का पुष्प संसार कारण नहीं है। वह सर्वथा बस का कारण नहीं है, वह मोर (सांसारिक भोगाकांक्षा) नहीं करना चाहिये । मदान 4. देशवामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसार दुःखतः सत्वान् बोधरत्युत्तमे सुखे ॥ • रत्नकरण्डक श्रावकाचार आचार्य समंतभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में व्यवहार रत्नत्रय यानी व्रतादिक पुण्य रूप रत्नत्रय का वर्णन किया है, उसे समीचीन धर्म कहा है। वह जीवों का कर्मनाश करके दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में धारण कराता है । 5. हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः । हेतुशुभाशुभ भावी कार्ये चैव सुखासुखे ।। कारण-कार्य की विशेषता से पुण्य और पाप में अंतर है। पुण्य के कारण शुभ भाव हैं, पाप के कारण अशुभ भाव हैं। तथा पुण्य का फल सुख, पाप का कार्य दुःख है। 6. अवतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिहितः । त्यजेतान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ - समाधिशतक अव्रतों (पापों) को त्यागकर व्रतों (पुण्य) में निष्ठावान होकर रहे तथा परमपद प्राप्त होने पर व्रतों को भी छोड़ देवें, अर्थात् जब छोड़ने का सकल्प ही वहाँ नहीं है तो पुण्य तो अपने आप छूट जाता है, छोड़ना नहीं पड़ता । 7. सुहजोगस्स पवित्ति संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । सुहजोगल्स गिरोहो सुबुवजोगेण संभवदि ॥ बारसाणुपेक्खर शुभयोग की प्रवृत्ति अशुभयोग से आने वाले कर्मों का संवर करती है तथा शुभयोग से आने वाले कर्मों का निरोध शुद्धोपयोग से होता है। स्पष्ट है कि शुद्धोपयोग से पाप का संवर नहीं होता, उसके लिये तो पुण्य चाहिये । वरं व्रतैः पदं देवं नाव्रतैवंतनारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ॥ - इष्टोपदेश: 8. व्रतों के द्वारा देवपद पाना श्रेष्ठ है, अव्रतों (पापों) से नरक पाना ठीक नहीं। छाया और धूप में बैठे व्यक्तियों के परिणामों में महान् अंतर है। - 9. भावं तिविहपबारे सुहासु सुद्धमेव णाययं । असुई अडकई सुहधम्मं जिणवरिदेहिं ॥ - भावपाहुड भाव तीन प्रकार का है - 1. शुभ, 2. अशुभ, 3. शुद्ध। उनमें आर्त, रौद्र ध्यान अशुभ हैं, शुभ रूप धर्मध्यान है। यहाँ स्पष्ट रूप से शुभ पुण्यभाव को धर्मध्यान एवं धर्मरूप ही कहा गया है। उपरोक्त उदाहरणों के समर्थन में तत्त्वार्थ सूत्र की यह स्पष्ट अवधारणा है कि पाप त्याज्य हैं, पुण्य उपादेय है । पुण्य-पाप की मीमांसा चाहे जिस रूप में तथा चाहे जितनी की जाय परंतु सिद्धि तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान तथा क्रिया से ही होगी । भावों एवं कर्मों की पुण्यता पवित्रता तो सर्वत्र इष्ट ही है। हाँ पुण्य का फल न चाहकर पुण्य सर्वदा करना चाहिये, जब तक करनी का प्रसंग है।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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