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________________ 68 / स्वार्थ-निकण आचार्य उमास्वामी की दृष्टि में अकालमरण * डा. बेयान्सकुमार जैन 16 संसार में जीव का जन्म-मरण शाश्वत सत्य है । जो जन्म लेता है, उसका मरण होना भी निश्चित है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र के द्वितीय अध्याय के अन्तिम सूत्र "औपपादिक चरमी समदे हाडसंख्येयवर्षायुषोsनपवर्षायुषः" द्वारा स्पष्ट किया है कि उपपाद जन्म वाले देव और नारकी, चरमोसमदेहधारी और असंख्यातवर्ष की आयु वाले जीव अनपवर्त्य (परिपूर्ण) आयु वाले होते हैं। यह विधि पक्ष है इसका निषेध पक्ष होगा कि इनसे अवशिष्ट जीव अपवर्त्य (अपूर्ण) आयु वाले होते हैं अर्थात् इनसे अवशिष्ट कर्मभूमियां मनुष्य और तिर्यश्च हैं, जिनका अकालमरण हो सकता है। यह पूर्ण सत्य है। क्योंकि आचार्य शिवार्य का कहना है - पडर्म असतवर्ण समूदत्यस्स होदि पडिसेहो । जत्वि जरस्स अकाल मच्छु ति जमेव मादीयं ॥ जो विद्यमान पदार्थ का प्रतिषेध करना सो प्रथम असत्य है। जैसे कर्मभूमि के मनुष्य के अकाल में मृत्यु का निषेध करना प्रथम असत्य है। इसका तात्पर्य है कि कर्मभूमिया जीवों की अकालमृत्यु होती है, जिसके अन्य शास्त्रों में भी अनेक प्रमाण मिलते हैं, उन्हीं की प्रस्तुति की जा रही है आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अकालमरण के निम्नकारण दर्शाय हैं. 1 विसवेयनरतक्खयमवसत्वग्गहणं संकिलेसाणं आहारुस्सलाणं निरोहणां विज्जदे आऊ || 25 | हिमअमलसलिलगुरुवर पव्वतरुरुहणपडयमभंगे हि । रसविज्योषधारण अपनेहिं विविहेहिं ॥ 26 ॥ * अर्थात् विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से, रुधिर के क्षय हो जाने से, भय से, शस्त्रघात से, संक्लेश परिणाम से, आहार तथा श्वास के निरोध से, आयु का क्षय हो जाता है और हिमपात से अग्नि से जलने के कारण, जल में डूबने से, बड़े पर्वत पर चढ़कर गिरने से, बड़े वृक्ष पर चढ़कर गिरने से शरीर का भंग होने से, पारा आदि रस के संयोग (भक्षण) से आयु का व्युच्छेद हो जाता है। १. म. भा. 830 २. * डर, संस्कृत विभाग, दिवम्बर जैन कालिज, बडौत 2017 s
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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