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________________ "करते हो जाते हैं कहा नावा Post A अनुमानत: सूत्र में मति, त एवं अवधिज्ञान की विपरीतता को सिद्ध करने के लिए हेतु एवं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि जैसे कोई उन्मत्त व्यक्ति विवेकहीन होने के कारण सत् एवं असत् में अन्तर नहीं कर पाता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि व्यक्ति प्रमाणाभास / अप्रमाण/मिथ्याज्ञान के द्वारा सत्-असत् का विवेक नहीं रख पाता है। 1. पक्ष (प्रतिज्ञा ) 2. हेतु 3. उदाहरण - उक्त सिद्धि में तत्त्वार्थ सूत्रकार ने अनुमान के तीनों अवयवों पक्ष हेतु तथा उदाहरण को दो सूत्रों में उपस्थित किया है तथा इस आधार पर मति आदि तीन ज्ञानों को विपरीत / प्रमाणाभास भी सिद्ध किया है। यथा - .मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च । सद्सतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेः । उन्मत्तवत् । इसी कारण से अज्ञान यहाँ यह अवधेय है कि जहाँ न्याय दर्शन में अनुमान प्रमाण के लिए प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन इन पञ्चावयव वाक्यों को माना गया है, वहाँ जैनदर्शन में अनुमान के लिए तीन अवयव ही अनिवार्य माने हैं। तत्त्वार्थसूत्र अन्यत्र भी तीन अवयवों का ही वस्तु की अनुमानतः सिद्धि में उपयोग किया गया है।' प्रमाण के भेद अंश - अंशी (धर्म-धर्मी) का भेद किये बिना वस्तु का ज्ञान प्रमाण कहा गया है। यह बात पाँचों ज्ञानों में पाई जाती है। अतः पाँचों ही ज्ञान प्रमाण हैं किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के इन ज्ञानों को दो प्रमाण रूप कहकर आदि के दो मतिज्ञान एवं श्रुत ज्ञान को परोक्ष तथा शेष अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान एवं केबलज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार किया है।' मति एवं श्रुत दो ज्ञानों को परोक्ष मानने का कारण यह है कि ये दो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं। शेष तीन ज्ञान इनकी सहायता के बिना आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होते हैं। १. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र 1/32 (मतिश्रुतावद्ययो विपर्ययश्च) का भाष्य २. सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्। तस्वार्थसूत्र 1 / 32 ३. द्रष्टव्य क. मुक्त जीव की ऊर्ध्वगमन सिद्धि पक्ष (प्रतिज्ञा) - तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् । हेतु पूर्वप्रयोगात्मत्वाद्वाछेपारातिपरिणामान्य • उदाहरण- आविकुलालचक्रवद्व्यपगतले पलाम्बुदेरण्डवीजवदन्तिशिखाच्च तत्त्वार्थसूत्र 10/5-7 बा. जीवों की सम्पूर्ण लोकाकाश तक में अवगाह की सिद्धि पक्ष (प्रतिज्ञा) - मसंख्येयभागादिषु जीवानाम् । हेतु प्रदीपसंहारविसर्पाभ्याम् ।. उदाहरण- प्रदीपवत् तत्वार्थसूत्र 5/15-16 ४. तठप्रमाणे । आधे परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । - तत्वार्थसून 4/10-12 म NAG
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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