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________________ 46 / सत्यार्थमि 'मततावचिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।” 'reast विपर्ययश्च ।" न्यायशास्त्र में विषय की दृष्टिसे ज्ञान की प्रमाणता एवं अप्रमाणता का निश्चय किया जाता है अर्थात जो ज्ञान घट को घट रूप जानता है, वह प्रमाण ज्ञान है और जो ज्ञान वस्तु को उस वस्तुरूप नहीं जानता है वह अप्रमाण ज्ञान है। मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान वस्तु को वस्तु रूप भी जानते हैं तथा मिथ्यादृष्टि में होने पर ये वस्तु को अवस्तु / भिन्नवस्तु रूप भी जानते हैं अत: इन तीनों में सम्यक्पना भी पाया जाता है और मिथ्यापना भी । प्रमाण का लक्षण - जैनदर्शन में स्व पर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना गया है। कषायपाहुड में 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्'' कहकर पदार्थ के जानने के साधन को प्रमाण कहा गया है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि प्रमाण का कोई सीधा लक्षण नहीं किया है, किन्तु पाँच सम्यग्ज्ञानों को दो प्रमाण रूप कहकर 'तत्प्रमाणे'' सूत्र में प्रमाण शब्द का उल्लेख किया है। आचार्य पूज्यपाद ने प्रमाण शब्द की निरुक्ति करते हुए लिखा है - 'प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् ।" अर्थात् जो अच्छी तरह मान करता है/ जानता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है / जाना जाता है अथवा प्रमिति / ज्ञान मात्र प्रमाण है । प्रमाण के इस लक्षण मे उन्होंने कर्ता, करण और भाव रूप तीन प्रकार से प्रमाण शब्द का निरुक्त्यर्थ किया है। आचार्य अकलंकदेव ने इसका और स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्रमाण शब्द भाव, कर्ता और करण तीनो साधनों में निष्पन्न होता है। जब भाव की विवक्षा होती है तो प्रमा को कहते हैं। कर्ता की विवक्षा में प्रमातृत्व शक्ति को प्रमाण कहते हैं और करण की विवक्षा में प्रमाता, प्रमेय एवं प्रमाण की भेदविवक्षा करके साधन को प्रमाण कहते हैं ।' प्रमाणाचास - जो वास्तव में प्रमाण तो न हो किन्तु प्रमाण जैसा प्रतीत हो उसे प्रमाणाभास कहते है। तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि प्रमाणाभास का कोई स्वरूप या विवेचन नहीं किया गया है, तथापि विपरीत मति, विपरीत भुत तथा विपरीत अवधि (विनावधि) इन तीन को अप्रमाण रूप कहने से इन्हें प्रमाणाभास ही समझना चाहिए। जैसे कड़वी तुम्बी में रखने से 'दूध कड़वा हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के संसर्ग से मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान में विपरीतता ना जाती है। जैसे रजादि को अलग कर देने पर संशोधित तुम्बी में रखा गया दूध कड़वा नहीं होता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन को दूर कर देने पर संशोधित इन त्रिविध ज्ञानों में मिथ्यापना नहीं आता | तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में पूर्वपक्ष के रूप में उत्थापित शका 'उसी को ज्ञान और उसी को अज्ञान कैसे कहा जा सकता है ?' का समाधान १. तत्त्वार्थसूत्र, 1/9 २. बाही, 1/31. पुस्तक / भाग / प्रकरण 1/27 पृ. 37 ४. स्वार्थसूत्र 1/10 ५. सर्वार्थसिद्धि 1/10 पृ. 98 ६. सार्तिक, 1/10 पृ. 49. वृति, बुतसागरसूरि, 1 / 31 की वृत्ति. सस्यावृति, भास्करमन्दि, 1/31 की वृत्ति.
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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