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________________ सम्यक्षारित्र-चिन्तामणि ताववन्तरमस्त्यत्र मुनीनां गृहिणां पुरः। चतुरङ्गुलमानेयं रसना प्रेरणी तथा ॥ १६ ॥ ददाति यादृश दुःखं न ततोऽन्यत्तु तादृशम् । हहो भव्यानयो रागं त्यक्त्वा स्वं हि सुखी भव ॥ १७॥ अर्थ-जिह्वा इन्द्रियके अधीन हुए पुष्ट शरीर वाले मच्छ जिस प्रकार बन्धनको प्राप्त हो मारे जाते हैं उसी प्रकार जिह्वा इन्द्रियके अधोन मनुष्य क्षित आहारसे पीडित हो पृथिवीतलपर मृत्युको प्राप्त होते देखे जाते हैं। जगत्मे कोई तिक्त प्रिय है-चिरपरा भोजन रुचिसे करते है, कोई मधुर भोजनको पसन्द करते है, कोई खारा भोजन अच्छा मानते है और कोई बिना नमकका भोजन करते है। कुछ लोग विरुद्ध आहार पानीके मिलने पर ऋद्ध हो कलह करते हुए निरन्तर खिन्न चित्त रहते हैं। लोकमे वे मुनि धन्य हैं जो नीरस आहार करते है। किन्होके जोवन पर्यन्तके लिये मिष्ठान्नका त्याग है, किन्हीके नमकका त्याग है, कोई नीरस गर्म पानो पोते है, कोई जोवन-पर्यन्तके लिये दधका त्याग किये हैं और यावज्जीवन घो छोडे हए है। उन मुनिराजोके सामने गृहस्थोका गार्हस्थ्य जोवन सकटोसे भरा हुआ है। मेरु पर्वत और सरसोमे जितना अन्तर है उतना अन्तर मुनि और गृहस्थोके सामने है । चार अंगुल प्रमाण रसना इन्द्रिय तथा कामेन्द्रिय जैसा दुख देती है वैसा दुख उनसे भिन्न अन्य इन्द्रिया नही देती। आचार्य कहते हैं-हे भव्य | इन दोनो इन्द्रियो का राग छोड, तू सुखो हो जा॥६-१७॥ आगे घ्राणेन्द्रिय जयका वर्णन करते है रक्तपीतारविन्दानां संचयेन समाचिते। विकसत्पुण्डरीकाणा मण्डलेन च मण्डिते ॥१८॥ कञ्जकिञ्जल्कपीताभसलिले सलिलाशये । सौगन्ध्यमापिबन् गन्धलोलुपो भ्रमरोभ्रमन् ॥ १९॥ साय निमीलिते पो ह्यासक्त्या सस्थितोऽभवत् । प्रात: सर्योदये जाते पद्म विकसिते सति ।। २० ॥ क्षणादेवोत्पतिष्यामि स्वेष्टधामेति चिन्तयन् । रजन्याः प्रथमे भागे सलिल पातुभागतः॥२१॥ गज एको जलं पीत्वा पद्मिनी तां चचर्व सः। भ्रमरः स्वविचारेण सह मृत्युमुपागतः॥ २२॥ सौगन्ध्यलोमतो मृत्यं यथा भ्रमर आगतः । तथाय मनुजो लोभाद् विविधः कष्टमश्नुते ॥ २३ ॥
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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