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________________ पञ्चम प्रकाश तथा कामेनियाधीना मनुजा अत्र मतले। विविषव्याधिमासाथ मज्जन्ति भवसागरे ॥७॥ के के न पतिता लोके नारीसङ्गमुपाश्रिताः । अपारदुःखसम्भारे वितते भवसागरे ॥८॥ अर्थ-अब मैं इन्द्रियजयको लक्ष्यकर कुछ कहता हूँ क्योकि इन्द्रियजय किये बिना लोकमे मुनि दीक्षाको विडम्बना हो होती है। इन्द्रियविषयोंके अधीन मनुष्य लोकमे पृथिवीमूल-खान, आकाश-मार्ग, पर्वत और समुद्रके तलमे सब ओर भ्रमण करते हैं। स्त्रियोके कोमल स्पर्शको लालसा रखनेवाले कामी पुरुष इसी लोकमे नाना प्रकारके कष्ट सहते हैं और परभवमे नारकी बन रावणके समान निरन्तर दुख भोगते हैं। जिस प्रकार कृत्रिम हस्तिनोके शरीरको स्पर्शके लिये आकुलित चित्त वाले हाथी दौडकर गड्ढेमे पड परतन्त्रता रूप महादु.खको प्राप्त होते हैं तथा पृथिवीपर चिरकाल तक दुःखी रहते हैं उसी प्रकार कामेन्द्रियके अधोन मनुष्य इस भूतलपर नाना प्रकारको व्याधियोको पाकर ससार सागरमे मग्न होते है। लोकमे स्त्रियोका संग पाकर अपार दु.खके समूहसे युक्त विस्तृत भवसागरमे कौन-कौन पतित नहीं हुए हैं ? अर्थात् सभी हुए है ॥२८॥ आगे जिह्वा-इन्द्रिय विजयका कथन करते हैं जिहन्द्रियरसाधीनाः पाठोनाः पुष्टदेहिनः । यथा बन्धनमायान्ति प्राणहीना भवन्ति च ॥९॥ तथा जिहन्द्रियाधीना मा मृत्युमुपागताः। दृश्यन्ते दूषिताहार-पीडिता जगतीतले ॥१०॥ केचितिक्तप्रिया लोके केचिच्च मधुरप्रियाः। केचित्क्षारप्रियाः सन्ति केचिवक्षारमोजिनः ॥११॥ विरुवाहारपाने च लन्धे युवतकोपनाः। कुर्वन्तः कलह नित्यं खिन्नचित्ता भवन्ति हा ॥१२॥ धन्यास्ते मुनयो लोके नीरसाहारकारिणः । आजीव त्यक्त मिष्टान्ना आजीवं क्षारमोचिनः ॥ १३ ॥ आजीवमुष्णपानीयं विरसं संपिबन्ति च । भाजीवं त्यक्तदुग्धा ये ह्याची घृतमोचिनः॥ १४ ॥ तेषां पुरो गृहस्थानां गार्हस्थ्य संकटाततम् । मेसर्षपयोर्मध्ये पाववन्तरमस्ति हि ॥ १५ ॥
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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